Monday 2 May 2022

गुरु की आवश्यकता क्यों होती है। ?

गुरु की आवश्यकता क्यों होती है। ?

अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में गुरु का महत्त्व इसलिए नहीं है। कि वह मंत्र बताता है। अथवा शुद्ध उच्चारण बताता है। या देवी देवता का चुनाव करता है। या शक्तिपात करता है। या पूजा पद्धति बताता है। वह अपनी अर्जित शक्ति शक्तिपात आदि से अथवा अपना अर्जित ज्ञान तो देता ही है। गुरु का महत्त्व इसलिए होता है। की वह सफलता को निश्चित करने के सूत्र देता है। वह हजारों साल के अनुभव और तकनिकी से अवगत कराता है। जिससे सफलता शीघ्र और निश्चित रूप से मिलती है।

कहा जा सकता है। की क्या गुरु की आयु आज के समय में हजार साल हो सकती है। जो वह हजार साल के अनुभव और तकनिकी देता है। नहीं ,वह हजार साल की आयु का भले नहीं हो किन्तु उसमे कई हजार साल के अनुभव होते हैं। और वह देता है। गुरु को उनके गुरु से ,उन्हें उनके गुरु से ,उन्हें उनके गुरु से ,इस क्रम में हजारों सालों के अनुभव ,सफलता ,असफलता के कारण ,उनकी खोजें ,वह तकनीक जिससे इन क्रमों में सफलता निश्चित और शीघ्र मिली ,यह सब प्राप्त हुआ होता है। इसके अलावा विभिन्न गुरु स्तरों पर साधना और सूक्ष्म विचरण के अनुभव | प्राप्त ज्ञान केवल अपने योग्य शिष्यों को ही गुरु द्वारा बताया गया होता है| इस प्रकार के अनुभव क्रमिक रूप से आते हुए गुरु में एकत्र होते हैं। और यह अनुभव कोई गुरु कभी न तो लिखता है। न लिखने की अनुमति देता है। वह सभी शिष्यों को सबकुछ बताता भी नहीं | इसलिए यह तकनीक और अनुभव न किताबों में लिखी जाती है। न संभव है |

इन सब तकनीकियों और ज्ञान के लिए ही गुरु का महत्त्व सर्वाधिक होता है |मंत्र और पद्धतियाँ तो किताबों में भी मिल जाती हैं। किन्तु तकनीक और अनुभव नहीं होते |गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र भी जाग्रत और स्वयं सिद्ध होते हैं| यही कारण है। की किताबों से सफलता नहीं मिलती अगर थोड़ी बहुत मिल भी जाए तो कुछ थोडा सा पाने और खुद को श्रेष्ठ समझने में ही जीवन आयु समाप्त हो जाती है। और व्यक्ति अंत में सोचता है काश समय रहते किसी को गुरु बना लिया होता अथवा गुरु खोज लिया होता या कोई योग्य गुरु मिल गया होता तो अधिक सफल हो जाता है।

जय श्रीराम

Friday 29 April 2022

शनिचरी अमावस्या 2022

वैशाख माह की अमावस्या तिथि कल यानी 30 अप्रैल दिन शनिवार को है। शनिचरी अमावस्या कृष्ण पक्ष की उस अमावस्या को कहते है। जो शनिवार के दिन पड़ती है। हिंदू धर्म में शनिश्चरी अमावस्या का विशेष महत्व व प्रभाव होता है। जिन जातकों पर शनि की महादशा हो उनके लिए यह शनिश्चरी अमावस्या अति लाभदायक होगी।
मान्यता है। कि इस दिन शनिदेव की विधि विधान से पूजा अर्चना करने पर शनि की महादशा के प्रभाव से बचा जा सकता है। यदि आप शनि देव को प्रसन्न करना चाहते है। और उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते है। साथ ही अपने पितरों को खुश करना चाहते है। तो नीचे दिए गए कुछ उपायों को करें। इन उपायों को करने से शनि देव और पितर दोनों प्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता से मान सम्मान, सुख-समृद्धि, धन-वैभव आदि की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में अमावस्या तिथि को पितरों को समर्पित माना गया है। अमावस्या तिथि को पितरों से जुड़े किसी भी काम को करने के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है। साथ ही इस दिन पूजा-पाठ, स्नान, दान आदि का भी विशेष महत्व बताया गया है।1. शनि अमावस्या के दिन शनिदेव की बजरंगबली की भी पूजा की जाती है। मान्यता है। कि ऐसा करने से शनिदेव व बजरंगबली की भक्तों पर कृपा बनी रहती है। शनिदेव की कृपा पाने के लिए शनि अमावस्या के दिन हनुमान चालीसा का पाठ जरूर करना चाहिए।
2. शनि अमावस्या के दिन हनुमान जी के दर्शन और उनकी भक्ति करने से शनि के सभी दोष समाप्त हो जाते है। और बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
3. शनि अमावस्या के दिन सातमुखी रूद्राक्ष को गंगाजल से धोकर धारण करना चाहिए। मान्यता है। कि ऐसा करने से समस्याओं से मुक्ति मिलती है।
4. शनि अमावस्या के दिन दान करने से तरक्की मिलने की मान्यता है।
5. शनि अमावस्या के दिन शाम को पीपल के पेड़ के नीचे चौमुखा दीपक जलाने से धन-संपदा की प्राप्ति होती है।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, शनि अमावस्या के दिन काली गाय की पूजा करें। ध्यान रखें कि उस गाय पर कोई रंग न हो। पूजा के दौरान उसको आठ बूंदी के लड्डू खिलाए और फिर सात बार परिक्रमा करें। इसके बाद गाय की पूंछ से अपने सिर को आठ बार झाड़ लें। ऐसा करने से शनि दोष दूर होता है। और शनिदेव के आशीर्वाद से सभी दुख व कष्ट दूर होते हैं।
शनिश्चरी अमावस्या के दिन पीपल के पेड़ की अवश्य पूजा करें। पीपल की जड़ में दूध और जल अर्पित करें और फिर पांच पीपल के पत्तों पर पांच तरह की मिठाई रखकर पीपल के पास रख दें, इसके बाद घी का दीपक जलाएं और सात परिक्रमा लगाएं। साथ ही संभव हो सके तो एक पीपल का पेड़ भी लगाएं और उसको रविवार के दिन छोड़कर हर रोज जल दें। ऐसा करने से शनि दोष से मुक्ति मिलती है। और नौकरी व व्यवसाय में उन्नति होती है। शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए शनि अमावस्या के दिन नवग्रह मंदिर में जाकर शनिदेव की पूजा आराधना करें। साथ ही शनि चालीसा और दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ करें। और फिर शनिदेव के मंत्र का जप करें। इसके बाद शनिदेव पर तेल, काले तिल और नीले रंग का फूल अर्पित करें। ऐसा करने से शनिदेव प्रसन्न होते है। और सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं।

Thursday 7 April 2022

महाकाल स्तोत्रं

महाकाल स्तोत्रं 
इस स्तोत्र को भगवान् महाकाल ने खुद
भैरवी को बताया था।
इसकी महिमा का जितना वर्णन किया जाये कम है। इसमें भगवान् महाकाल के विभिन्न नामों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की गयी है।
शिव भक्तों के लिए यह स्तोत्र वरदान स्वरुप है। नित्य एक बार जप भी साधक के अन्दर शक्ति तत्त्व और वीर तत्त्व जाग्रत कर देता है। मन में प्रफुल्लता आ जाती है। भगवान शिव की साधना में यदि इसका एक बार जप कर लिया जाये तो सफलता की सम्भावना बढ जाती है।
ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते
महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते
महाकाल महादेव महाकाल महा प्रभो
महाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुते
महाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहन
महाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुते
भवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमः
रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः
उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः
भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः
ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः
सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः
अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः
स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः
परमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुते
पवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुते
सोम रूप नमस्तुभ्यं सूर्य रूप नमोस्तुते
यजमान नमस्तुभ्यं अकाशाया नमो नमः
सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते
ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते
रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते
स्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमः
नमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमः
हुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमः
सचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमः
प्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुते
प्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमः
ॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसे
स्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमः
फल श्रुति
इत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवी
कीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम।।
9760924411

काली-सहस्रनाम पाठ

काली-सहस्रनाम
श्मशान-कालिका काली भद्रकाली कपालिनी ।
गुह्य-काली महाकाली कुरु-कुल्ला विरोधिनी ।।१।।
कालिका काल-रात्रिश्च महा-काल-नितम्बिनी ।
काल-भैरव-भार्या च कुल-वत्र्म-प्रकाशिनी ।।२।।
कामदा कामिनीया कन्या कमनीय-स्वरूपिणी ।
कस्तूरी-रस-लिप्ताङ्गी कुञ्जरेश्वर-गामिनी।।३।।
ककार-वर्ण-सर्वाङ्गी कामिनी काम-सुन्दरी ।
कामात्र्ता काम-रूपा च काम-धेनुु: कलावती ।।४।।
कान्ता काम-स्वरूपा च कामाख्या कुल-कामिनी ।
कुलीना कुल-वत्यम्बा दुर्गा दुर्गति-नाशिनी ।।५।।
कौमारी कुलजा कृष्णा कृष्ण-देहा कृशोदरी ।
कृशाङ्गी कुलाशाङ्गी च क्रीज्ररी कमला कला ।।६।।
करालास्य कराली च कुल-कांतापराजिता ।
उग्रा उग्र-प्रभा दीप्ता विप्र-चित्ता महा-बला ।।७।।
नीला घना मेघ-नाद्रा मात्रा मुद्रा मिताऽमिता ।
ब्राह्मी नारायणी भद्रा सुभद्रा भक्त-वत्सला ।।८।।
माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही नारसिंहिका ।
वङ्कांगी वङ्का-कंकाली नृ-मुण्ड-स्रग्विणी शिवा ।।९।।
मालिनी नर-मुण्डाली-गलद्रक्त-विभूषणा ।
रक्त-चन्दन-सिक्ताङ्गी सिंदूरारुण-मस्तका ।।१०।।
घोर-रूपा घोर-दंष्ट्रा घोरा घोर-तरा शुभा ।
महा-दंष्ट्रा महा-माया सुदन्ती युग-दन्तुरा ।।११।।
सुलोचना विरूपाक्षी विशालाक्षी त्रिलोचना ।
शारदेन्दु-प्रसन्नस्या स्पुâरत्-स्मेराम्बुजेक्षणा ।।१२।।
अट्टहासा प्रफुल्लास्या स्मेर-वक्त्रा सुभाषिणी ।
प्रफुल्ल-पद्म-वदना स्मितास्या प्रिय-भाषिणी ।।१३।।
कोटराक्षी कुल-श्रेष्ठा महती बहु-भाषिणी ।
सुमति: मतिश्चण्डा चण्ड-मुण्डाति-वेगिनी ।।१४।।
प्रचण्डा चण्डिका चण्डी चर्चिका चण्ड-वेगिनी ।
सुकेशी मुक्त-केशी च दीर्घ-केशी महा-कचा ।।१५।।
पे्रत-देही-कर्ण-पूरा प्रेत-पाणि-सुमेखला ।
प्रेतासना प्रिय-प्रेता प्रेत-भूमि-कृतालया ।।१६।।
श्मशान-वासिनी पुण्या पुण्यदा कुल-पण्डिता ।
पुण्यालया पुण्य-देहा पुण्य-श्लोका च पावनी ।।१७।।
पूता पवित्रा परमा परा पुण्य-विभूषणा ।
पुण्य-नाम्नी भीति-हरा वरदा खङ्ग-पाशिनी ।।१८।।
नृ-मुण्ड-हस्ता शस्त्रा च छिन्नमस्ता सुनासिका ।
दक्षिणा श्यामला श्यामा शांता पीनोन्नत-स्तनी ।।१९।।
दिगम्बरा घोर-रावा सृक्कान्ता-रक्त-वाहिनी ।
महा-रावा शिवा संज्ञा नि:संगा मदनातुरा ।।२०।।
मत्ता प्रमत्ता मदना सुधा-सिन्धु-निवासिनी ।
अति-मत्ता महा-मत्ता सर्वाकर्षण-कारिणी ।।२१।।
गीत-प्रिया वाद्य-रता प्रेत-नृत्य-परायणा ।
चतुर्भुजा दश-भुजा अष्टादश-भुजा तथा ।।२२।।
कात्यायनी जगन्माता जगती-परमेश्वरी ।
जगद्-बन्धुर्जगद्धात्री जगदानन्द-कारिणी ।।२३।।
जगज्जीव-मयी हेम-वती महामाया महा-लया ।
नाग-यज्ञोपवीताङ्गी नागिनी नाग-शायनी ।।२४।।
नाग-कन्या देव-कन्या गान्धारी किन्नरेश्वरी ।
मोह-रात्री महा-रात्री दरुणाभा सुरासुरी ।।२५।।
विद्या-धरी वसु-मती यक्षिणी योगिनी जरा ।
राक्षसी डाकिनी वेद-मयी वेद-विभूषणा ।।२६।।
श्रुति-स्मृतिर्महा-विद्या गुह्य-विद्या पुरातनी ।
चिंताऽचिंता स्वधा स्वाहा निद्रा तन्द्रा च पार्वती ।।२७।।
अर्पणा निश्चला लीला सर्व-विद्या-तपस्विनी ।
गङ्गा काशी शची सीता सती सत्य-परायणा ।।२८।।
नीति: सुनीति: सुरुचिस्तुष्टि: पुष्टिर्धृति: क्षमा ।
वाणी बुद्धिर्महा-लक्ष्मी लक्ष्मीर्नील-सरस्वती ।।२९।।
स्रोतस्वती स्रोत-वती मातङ्गी विजया जया ।
नदी सिन्धु: सर्व-मयी तारा शून्य निवासिनी ।।३०।।
शुद्धा तरंगिणी मेधा शाकिनी बहु-रूपिणी ।
सदानन्द-मयी सत्या सर्वानन्द-स्वरूपणि ।।३१।।
स्थूला सूक्ष्मा सूक्ष्म-तरा भगवत्यनुरूपिणी ।
परमार्थ-स्वरूपा च चिदानन्द-स्वरूपिणी ।।३२।।
सुनन्दा नन्दिनी स्तुत्या स्तवनीया स्वभाविनी ।
रंकिणी टंकिणी चित्रा विचित्रा चित्र-रूपिणी ।।३३।।
पद्मा पद्मालया पद्म-मुखी पद्म-विभूषणा ।
शाकिनी हाकिनी क्षान्ता राकिणी रुधिर-प्रिया ।।३४।।
भ्रान्तिर्भवानी रुद्राणी मृडानी शत्रु-मर्दिनी ।
उपेन्द्राणी महेशानी ज्योत्स्ना चन्द्र-स्वरूपिणी ।।३५।।
सूय्र्यात्मिका रुद्र-पत्नी रौद्री स्त्री प्रकृति: पुमान् ।
शक्ति: सूक्तिर्मति-मती भक्तिर्मुक्ति: पति-व्रता ।।३६।।
सर्वेश्वरी सर्व-माता सर्वाणी हर-वल्लभा ।
सर्वज्ञा सिद्धिदा सिद्धा भाव्या भव्या भयापहा ।।३७।।
कर्त्री हर्त्री पालयित्री शर्वरी तामसी दया ।
तमिस्रा यामिनीस्था न स्थिरा धीरा तपस्विनी ।।३८।।
चार्वङ्गी चंचला लोल-जिह्वा चारु-चरित्रिणी ।
त्रपा त्रपा-वती लज्जा निर्लज्जा ह्नीं रजोवती ।।३९।।
सत्व-वती धर्म-निष्ठा श्रेष्ठा निष्ठुर-वादिनी ।
गरिष्ठा दुष्ट-संहत्री विशिष्टा श्रेयसी घृणा ।।४०।।
भीमा भयानका भीमा-नादिनी भी: प्रभावती ।
वागीश्वरी श्रीर्यमुना यज्ञ-कत्र्री यजु:-प्रिया ।।४१।।
ऋक्-सामाथर्व-निलया रागिणी शोभन-स्वरा ।
कल-कण्ठी कम्बु-कण्ठी वेणु-वीणा-परायणा ।।४२।।
वशिनी वैष्णवी स्वच्छा धात्री त्रि-जगदीश्वरी ।
मधुमती कुण्डलिनी शक्ति: ऋद्धि: सिद्धि: शुचि-स्मिता ।।४३।।
रम्भोवैशी रती रामा रोहिणी रेवती मघा ।
शङ्खिनी चक्रिणी कृष्णा गदिनी पद्मनी तथा ।।४४।।
शूलिनी परिघास्त्रा च पाशिनी शाङ्र्ग-पाणिनी ।
पिनाक-धारिणी धूम्रा सुरभि वन-मालिनी ।।४५।।
रथिनी समर-प्रीता च वेगिनी रण-पण्डिता ।
जटिनी वङ्किाणी नीला लावण्याम्बुधि-चन्द्रिका ।।४६।।
बलि-प्रिया महा-पूज्या पूर्णा दैत्येन्द्र-मन्थिनी ।
महिषासुर-संहन्त्री वासिनी रक्त-दन्तिका ।।४७।।
रक्तपा रुधिराक्ताङ्गी रक्त-खर्पर-हस्तिनी ।
रक्त-प्रिया माँस - रुधिरासवासक्त-मानसा ।।४८।।
गलच्छोेणित-मुण्डालि-कण्ठ-माला-विभूषणा ।
शवासना चितान्त:स्था माहेशी वृष-वाहिनी ।।४९।।
व्याघ्र-त्वगम्बरा चीर-चेलिनी सिंह-वाहिनी ।
वाम-देवी महा-देवी गौरी सर्वज्ञ-भाविनी ।।५०।।
बालिका तरुणी वृद्धा वृद्ध-माता जरातुरा ।
सुभ्रुर्विलासिनी ब्रह्म-वादिनि ब्रह्माणी मही ।।५१।।
स्वप्नावती चित्र-लेखा लोपा-मुद्रा सुरेश्वरी ।
अमोघाऽरुन्धती तीक्ष्णा भोगवत्यनुवादिनी ।।५२।।
मन्दाकिनी मन्द-हासा ज्वालामुख्यसुरान्तका ।
मानदा मानिनी मान्या माननीया मदोद्धता ।।५३।।
मदिरा मदिरोन्मादा मेध्या नव्या प्रसादिनी ।
सुमध्यानन्त-गुणिनी सर्व-लोकोत्तमोत्तमा ।।५४।।
जयदा जित्वरा जेत्री जयश्रीर्जय-शालिनी ।
सुखदा शुभदा सत्या सभा-संक्षोभ-कारिणी ।।५५।।
शिव-दूती भूति-मती विभूतिर्भीषणानना ।
कौमारी कुलजा कुन्ती कुल-स्त्री कुल-पालिका ।।५६।।
कीर्तिर्यशस्विनी भूषां भूष्या भूत-पति-प्रिया ।
सगुणा-निर्गुणा धृष्ठा कला-काष्ठा प्रतिष्ठिता ।।५७।।
धनिष्ठा धनदा धन्या वसुधा स्व-प्रकाशिनी ।
उर्वी गुर्वी गुरु-श्रेष्ठा सगुणा त्रिगुणात्मिका ।।५८।।
महा-कुलीना निष्कामा सकामा काम-जीवना ।
काम-देव-कला रामाभिरामा शिव-नर्तकी ।।५९।।
चिन्तामणि: कल्पलता जाग्रती दीन-वत्सला ।
कार्तिकी कृत्तिका कृत्या अयोेध्या विषमा समा ।।६०।।
सुमंत्रा मंत्रिणी घूर्णा ह्लादिनी क्लेश-नाशिनी ।
त्रैलोक्य-जननी हृष्टा निर्मांसा मनोरूपिणी ।।६१।।
तडाग-निम्न-जठरा शुष्क-मांसास्थि-मालिनी ।
अवन्ती मथुरा माया त्रैलोक्य-पावनीश्वरी ।।६२।।
व्यक्ताव्यक्तानेक-मूर्ति: शर्वरी भीम-नादिनी ।
क्षेमज्र्री शंकरी च सर्व- सम्मोह-कारिणी ।।६३।।
ऊध्र्व-तेजस्विनी क्लिन्न महा-तेजस्विनी तथा ।
अद्वैत भोगिनी पूज्या युवती सर्व-मङ्गला ।।६४।।
सर्व-प्रियंकरी भोग्या धरणी पिशिताशना ।
भयंकरी पाप-हरा निष्कलंका वशंकरी ।।६५।।
आशा तृष्णा चन्द्र-कला निद्रिका वायु-वेगिनी ।
सहस्र-सूर्य संकाशा चन्द्र-कोटि-सम-प्रभा ।।६६।।
वह्नि-मण्डल-मध्यस्था सर्व-तत्त्व-प्रतिष्ठिता ।
सर्वाचार-वती सर्व-देव - कन्याधिदेवता ।।६७।।
दक्ष-कन्या दक्ष-यज्ञ नाशिनी दुर्ग तारिणी ।
इज्या पूज्या विभीर्भूति: सत्कीर्तिब्र्रह्म-रूपिणी ।।६८।।
रम्भीश्चतुरा राका जयन्ती करुणा कुहु: ।
मनस्विनी देव-माता यशस्या ब्रह्म-चारिणी ।।६९।।
ऋद्धिदा वृद्धिदा वृद्धि: सर्वाद्या सर्व-दायिनी ।
आधार-रूपिणी ध्येया मूलाधार-निवासिनी ।।७०।।
आज्ञा प्रज्ञा-पूर्ण-मनाश्चन्द्र-मुख्यानुवूâलिनी ।
वावदूका निम्न-नाभि: सत्या सन्ध्या दृढ़-व्रता ।।७१।।
आन्वीक्षिकी दंड-नीतिस्त्रयी त्रि-दिव-सुन्दरी ।
ज्वलिनी ज्वालिनी शैल-तनया विन्ध्य-वासिनी ।।७२।।
अमेया खेचरी धैर्या तुरीया विमलातुरा ।
प्रगल्भा वारुणीच्छाया शशिनी विस्पुâलिङ्गिनी ।।७३।।
भुक्ति सिद्धि सदा प्राप्ति: प्राकम्या महिमाणिमा ।
इच्छा-सिद्धिर्विसिद्धा च वशित्वीध्र्व-निवासिनी ।।७४।।
लघिमा चैव गायित्री सावित्री भुवनेश्वरी ।
मनोहरा चिता दिव्या देव्युदारा मनोरमा ।।७५।।
पिंगला कपिला जिह्वा-रसज्ञा रसिका रसा ।
सुषुम्नेडा भोगवती गान्धारी नरकान्तका ।।७६।।
पाञ्चाली रुक्मिणी राधाराध्या भीमाधिराधिका ।
अमृता तुलसी वृन्दा वैâटभी कपटेश्वरी ।।७७।।
उग्र-चण्डेश्वरी वीर-जननी वीर-सुन्दरी ।
उग्र-तारा यशोदाख्या देवकी देव-मानिता ।।७८।।
निरन्जना चित्र-देवी क्रोधिनी कुल-दीपिका ।
कुल-वागीश्वरी वाणी मातृका द्राविणी द्रवा ।।७९।।
योगेश्वरी-महा-मारी भ्रामरी विन्दु-रूपिणी ।
दूती प्राणेश्वरी गुप्ता बहुला चामरी-प्रभा ।।८०।।
कुब्जिका ज्ञानिनी ज्येष्ठा भुशुंडी प्रकटा तिथि: ।
द्रविणी गोपिनी माया काम-बीजेश्वरी क्रिया ।।८१।।
शांभवी केकरा मेना मूषलास्त्रा तिलोत्तमा ।
अमेय-विक्रमा व्रूâरा सम्पत्-शाला त्रिलोचना ।।८२।।
सुस्थी हव्य-वहा प्रीतिरुष्मा धूम्रार्चिरङ्गदा ।
तपिनी तापिनी विश्वा भोगदा धारिणी धरा ।।८३।।
त्रिखंडा बोधिनी वश्या सकला शब्द-रूपिणी ।
बीज-रूपा महा-मुद्रा योगिनी योनि-रूपिणी ।।८४।।
अनङ्ग - मदनानङ्ग - लेखनङ्ग - कुशेश्वरी ।
अनङ्ग-मालिनि-कामेशी देवि सर्वार्थ-साधिका ।।८५।।
सर्व-मन्त्र-मयी मोहिन्यरुणानङ्ग-मोहिनी ।
अनङ्ग-कुसुमानङ्ग-मेखलानङ्ग - रूपिणी ।।८६।।
वङ्कोश्वरी च जयिनी सर्व-द्वन्द्व-क्षयज्र्री ।
षडङ्ग-युवती योग-युक्ता ज्वालांशु-मालिनी ।।८७।।
दुराशया दुराधारा दुर्जया दुर्ग-रूपिणी ।
दुरन्ता दुष्कृति-हरा दुध्र्येया दुरतिक्रमा ।।८८।।
हंसेश्वरी त्रिकोणस्था शाकम्भर्यनुकम्पिनी ।
त्रिकोण-निलया नित्या परमामृत-रञ्जिता ।।८९।।
महा-विद्येश्वरी श्वेता भेरुण्डा कुल-सुन्दरी ।
त्वरिता भक्त-संसक्ता भक्ति-वश्या सनातनी ।।९०।।
भक्तानन्द-मयी भक्ति-भाविका भक्ति-शज्र्री ।
सर्व-सौन्दर्य-निलया सर्व-सौभाग्य-शालिनी ।।९१।।
सर्व-सौभाग्य-भवना सर्व सौख्य-निरूपिणी ।
कुमारी-पूजन-रता कुमारी-व्रत-चारिणी ।।९२।।
कुमारी-भक्ति-सुखिनी कुमारी-रूप-धारिणी ।
कुमारी-पूजक-प्रीता कुमारी प्रीतिदा प्रिया ।।९३।।
कुमारी-सेवकासंगा कुमारी-सेवकालया ।
आनन्द-भैरवी बाला भैरवी वटुक-भैरवी ।।९४।।
श्मशान-भैरवी काल-भैरवी पुर-भैरवी ।
महा-भैरव-पत्नी च परमानन्द-भैरवी ।।९५।।
सुधानन्द-भैरवी च उन्मादानन्द-भैरवी ।
मुक्तानन्द-भैरवी च तथा तरुण-भैरवी ।।९६।।
ज्ञानानन्द-भैरवी च अमृतानन्द-भैरवी ।
महा-भयज्र्री तीव्रा तीव्र-वेगा तपस्विनी ।।९७।।
त्रिपुरा परमेशानी सुन्दरी पुर-सुन्दरी ।
त्रिपुरेशी पञ्च-दशी पञ्चमी पुर-वासिनी ।।९८।।
महा-सप्त-दशी चैव षोडशी त्रिपुरेश्वरी ।
महांकुश-स्वरूपा च महा-चव्रेâश्वरी तथा ।।९९।।
नव-चव्रेâश्वरी चक्र-ईश्वरी त्रिपुर-मालिनी ।
राज-राजेश्वरी धीरा महा-त्रिपुर-सुन्दरी ।।१००।।
सिन्दूर-पूर-रुचिरा श्रीमत्त्रिपुर-सुन्दरी ।
सर्वांग-सुन्दरी रक्ता रक्त-वस्त्रोत्तरीयिणी ।।१०१।।
जवा-यावक-सिन्दूर -रक्त-चन्दन-धारिणी ।
त्रिकूटस्था पञ्च-कूटा सर्व-वूâट-शरीरिणी ।।१०२।।
चामरी बाल-कुटिल-निर्मल-श्याम-केशिनी ।
वङ्का-मौक्तिक-रत्नाढ्या-किरीट-मुकुटोज्ज्वला ।।१०३।।
रत्न-कुण्डल-संसक्त-स्फुरद्-गण्ड-मनोरमा ।
कुञ्जरेश्वर-कुम्भोत्थ-मुक्ता-रञ्जित-नासिका ।।१०४।।
मुक्ता-विद्रुम-माणिक्य-हाराढ्य-स्तन-मण्डला ।
सूर्य-कान्तेन्दु-कान्ताढ्य-कान्ता-कण्ठ-भूषणा ।।१०५।।
वीजपूर-स्फुरद्-वीज -दन्त - पंक्तिरनुत्तमा ।
काम-कोदण्डकाभुग्न-भ्रू-कटाक्ष-प्रवर्षिणी ।।१०६।।
मातंग-कुम्भ-वक्षोजा लसत्कोक-नदेक्षणा ।
मनोज्ञ-शुष्कुली-कर्णा हंसी-गति-विडम्बिनी ।।१०७।।
पद्म-रागांगदा-ज्योतिर्दोश्चतुष्क-प्रकाशिनी ।
नाना-मणि-परिस्फूर्जच्दृद्ध-कांचन-वंâकणा ।।१०८।।
नागेन्द्र-दन्त-निर्माण-वलयांचित-पाणिनी ।
अंगुरीयक-चित्रांगी विचित्र-क्षुद्र-घण्टिका ।।१०९।।
पट्टाम्बर-परीधाना कल-मञ्जीर-शिंजिनी ।
कर्पूरागरु-कस्तूरी-कुंकुम-द्रव-लेपिता ।।११०।।
विचित्र-रत्न-पृथिवी-कल्प-शाखि-तल-स्थिता ।
रत्न-द्वीप-स्पुâरद्-रक्त-सिंहासन-विलासिनी ।।१११।।
षट्-चक्र-भेदन-करी परमानन्द-रूपिणी ।
सहस्र-दल - पद्यान्तश्चन्द्र - मण्डल-वर्तिनी ।।११२।।
ब्रह्म-रूप-शिव-क्रोड-नाना-सुख-विलासिनी ।
हर-विष्णु-विरंचीन्द्र-ग्रह - नायक-सेविता ।।११३।।
शिवा शैवा च रुद्राणी तथैव शिव-वादिनी ।
मातंगिनी श्रीमती च तथैवानन्द-मेखला ।।११४।।
डाकिनी योगिनी चैव तथोपयोगिनी मता ।
माहेश्वरी वैष्णवी च भ्रामरी शिव-रूपिणी ।।११५।।
अलम्बुषा वेग-वती क्रोध-रूपा सु-मेखला ।
गान्धारी हस्ति-जिह्वा च इडा चैव शुभज्र्री ।।११६।।
पिंगला ब्रह्म-सूत्री च सुषुम्णा चैव गन्धिनी ।
आत्म-योनिब्र्रह्म-योनिर्जगद-योनिरयोनिजा ।।११७।।
भग-रूपा भग-स्थात्री भगनी भग-रूपिणी ।
भगात्मिका भगाधार-रूपिणी भग-मालिनी ।।११८।।
लिंगाख्या चैव लिंगेशी त्रिपुरा-भैरवी तथा ।
लिंग-गीति: सुगीतिश्च लिंगस्था लिंग-रूप-धृव्â ।।११९।।
लिंग-माना लिंग-भवा लिंग-लिंगा च पार्वती ।
भगवती कौशिकी च प्रेमा चैव प्रियंवदा ।।१२०।।
गृध्र-रूपा शिवा-रूपा चक्रिणी चक्र-रूप-धृव्â ।
लिंगाभिधायिनी लिंग-प्रिया लिंग-निवासिनी ।।१२१।।
लिंगस्था लिंगनी लिंग-रूपिणी लिंग-सुन्दरी ।
लिंग-गीतिमहा-प्रीता भग-गीतिर्महा-सुखा ।।१२२।।
लिंग-नाम-सदानंदा भग-नाम सदा-रति: ।
लिंग-माला-वंâठ-भूषा भग-माला-विभूषणा ।।१२३।।
भग-लिंगामृत-प्रीता भग-लिंगामृतात्मिका ।
भग-लिंगार्चन-प्रीता भग-लिंग-स्वरूपिणी ।।१२४।।
भग-लिंग-स्वरूपा च भग-लिंग-सुखावहा ।
स्वयम्भू-कुसुम-प्रीता स्वयम्भू-कुसुमार्चिता ।।१२५।।
स्वयम्भू-पुष्प-प्राणा स्वयम्भू-कुसुमोत्थिता ।
स्वयम्भू-कुसुम-स्नाता स्वयम्भू-पुष्प-तर्पिता ।।१२६।।
स्वयम्भू-पुष्प-घटिता स्वयम्भू-पुष्प-धारिणी ।
स्वयम्भू-पुष्प-तिलका स्वयम्भू-पुष्प-चर्चिता ।।१२७।।
स्वयम्भू-पुष्प-निरता स्वयम्भू-कुसुम-ग्रहा ।
स्वयम्भू-पुष्प-यज्ञांगा स्वयम्भूकुसुमात्मिका ।।१२८।।
स्वयम्भू-पुष्प-निचिता स्वयम्भू-कुसुम-प्रिया ।
स्वयम्भू-कुसुमादान-लालसोन्मत्त - मानसा ।।१२९।।
स्वयम्भू-कुसुमानन्द-लहरी-स्निग्ध देहिनी ।
स्वयम्भू-कुसुमाधारा स्वयम्भू-वुुâसुमा-कला ।।१३०।।
स्वयम्भू-पुष्प-निलया स्वयम्भू-पुष्प-वासिनी ।
स्वयम्भू-कुसुम-स्निग्धा स्वयम्भू-कुसुमात्मिका ।।१३१।।
स्वयम्भू-पुष्प-कारिणी स्वयम्भू-पुष्प-पाणिका ।
स्वयम्भू-कुसुम-ध्याना स्वयम्भू-कुसुम-प्रभा ।।१३२।।
स्वयम्भू-कुसुम-ज्ञाना स्वयम्भू-पुष्प-भोगिनी ।
स्वयम्भू-कुसुमोल्लास स्वयम्भू-पुष्प-वर्षिणी ।।१३३।।
स्वयम्भू-कुसुमोत्साहा स्वयम्भू-पुष्प-रूपिणी ।
स्वयम्भू-कुसुमोन्मादा स्वयम्भू पुष्प-सुन्दरी ।।१३४।।
स्वयम्भू-कुसुमाराध्या स्वयम्भू-कुसुमोद्भवा ।
स्वयम्भू-कुसुम-व्यग्रा स्वयम्भू-पुष्प-पूर्णिता ।।१३५।।
स्वयम्भू-पूजक-प्रज्ञा स्वयम्भू-होतृ-मातृका ।
स्वयम्भू-दातृ-रक्षित्री स्वयम्भू-रक्त-तारिका ।।१३६।।
स्वयम्भू-पूजक-ग्रस्ता स्वयम्भू-पूजक-प्रिया ।
स्वयम्भू-वन्दकाधारा स्वयम्भू-निन्दकान्तका ।।१३७।।
स्वयम्भू-प्रद-सर्वस्वा स्वयम्भू-प्रद-पुत्रिणी ।
स्वम्भू-प्रद-सस्मेरा स्वयम्भू-प्रद-शरीरिणी ।।१३८।।
सर्व-कालोद्भव-प्रीता सर्व-कालोद्भवात्मिका ।
सर्व-कालोद्भवोद्भावा सर्व-कालोद्भवोद्भवा ।।१३९।।
कुण्ड-पुष्प-सदा-प्रीतिर्गोल-पुष्प-सदा-रति: ।
कुण्ड-गोलोद्भव-प्राणा कुण्ड-गोलोद्भवात्मिका ।।१४०।।
स्वयम्भुवा शिवा धात्री पावनी लोक-पावनी ।
कीर्तिर्यशस्विनी मेधा विमेधा शुक्र-सुन्दरी ।।१४१।।
अश्विनी कृत्तिका पुष्या तैजस्का चन्द्र-मण्डला ।
सूक्ष्माऽसूक्ष्मा वलाका च वरदा भय-नाशिनी ।।१४२।।
वरदाऽभयदा चैव मुक्ति-बन्ध-विनाशिनी ।
कामुका कामदा कान्ता कामाख्या कुल-सुन्दरी ।।१४३।।
दुःखदा सुखदा मोक्षा मोक्षदार्थ-प्रकाशिनी ।
दुष्टादुष्ट-मतिश्चैव सर्व-कार्य-विनाशिनी ।।१४४।।
शुक्राधारा शुक्र-रूपा-शुक्र-सिन्धु-निवासिनी ।
शुक्रालया शुक्र-भोग्या शुक्र-पूजा-सदा-रति:।।१४५।।
शुक्र-पूज्या-शुक्र-होम-सन्तुष्टा शुक्र-वत्सला ।
शुक्र-मूत्र्ति: शुक्र-देहा शुक्र-पूजक-पुत्रिणी ।।१४६।।
शुक्रस्था शुक्रिणी शुक्र-संस्पृहा शुक्र-सुन्दरी ।
शुक्र-स्नाता शुक्र-करी शुक्र-सेव्याति-शुक्रिणी ।।१४७।।
महा-शुक्रा शुक्र-भवा शुक्र-वृष्टि-विधायिनी ।
शुक्राभिधेया शुक्रार्हा शुक्र-वन्दक-वन्दिता ।।१४८।।
शुक्रानन्द-करी शुक्र-सदानन्दाभिधायिका ।
शुक्रोत्सवा सदा-शुक्र-पूर्णा शुक्र-मनोरमा ।।१४९।।
शुक्र-पूजक-सर्वस्वा शुक्र-निन्दक-नाशिनी ।
शुक्रात्मिका शुक्र-सम्पत् शुक्राकर्षण-कारिणी ।।१५०।।
शारदा साधक-प्राणा साधकासक्त-रक्तपा ।
साधकानन्द-सन्तोषा साधकानन्द-कारिणी ।।१५१।।
आत्म-विद्या ब्रह्म-विद्या पर ब्रह्म स्वरूपिणी ।
सर्व-वर्ण-मयी देवी जप-माला-विधायिनी ।।
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अंक ज्योतिष के अनुसार जन्म तारीख के कुल योग को मूलांक कहते है।

अंक ज्योतिष के अनुसार जन्म तारीख के कुल योग को मूलांक कहते है।  DD :MM :YYYY के कुल योग को भाग्यांक कहते है, मूलांक और भाग्यांक के अनुसार काम करने से जीवन में रुके हुए काम पुरे होते चले जाते है :-
अंकज्योतिष में नौ ग्रहों सूर्य, चन्द्र, गुरू, यूरेनस, बुध, शुक्र, वरूण, शनि और मंगल की विशेषताओं के आधार पर गणना की जाती है। इन में से प्रत्येक ग्रह के लिए 1 से लेकर 9 तक कोई एक अंक निर्धारित किया गया है, कौन से ग्रह पर किस अंक का असर होता है। ये नौ ग्रह मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं।
आइये जाने किस अंक का कौन स्वामी है :-
जन्म तारीख 1, 10, 19, 28 का मूलांक 1 का स्वामी सूर्य है
2, 11, 20, 29 तारीख को जन्मे व्यक्ति का मूलांक- 2 स्वामी चंद्रमा
3, 12, 21, 30 मूलांक- 3, स्वामी गुरू
4, 13, 22, 31 मूलांक 4 का स्वामी- राहु
5, 14, 23 मूलांक 5 स्वामी बुध
6, 15, 24 मूलांक 6 स्वामी शुक्र
7, 16, 25 मूलांक 7 स्वामी केतु
8, 17, 26 मूलांक 8 स्वामी- शनि-
9, 18, 27 मूलांक 9 स्वामी मंगल
आइये जाने भाग्यशाली अंक, अंको के रंग और शुभ दिशा
मूलांक 1 : यह अंक स्वतंत्र व्यक्तित्व का धनी है। इससे संभावित अंह का बोध, आत्म निर्भरता, प्रतिज्ञा, दृढ़ इच्छा शक्ति एवं विशिष्ट व्यक्तित्व दृष्टि गोचर होता है। इसके स्वामी सूर्य हैं. जिस व्यक्ति का जन्म समय 21 जुलाई से 28 अगस्त के मध्य हो, का प्रभाव सूर्य के नियंत्रण में होता है, इनके लिए शुभ तिथि 1,10,19 एवं 28 तारीख है. चार अंक से इनका जबरदस्त आकर्षण होता है. इनके लिए शुभ दिन रविवार एवं सोमवार है, तो शुभ रंग पीला, हरा एवं भूरा है. ये अपने ऑफिस, शयनकक्ष परदे, बेडशीट एवं दीवारों के रंग इन्हीं रंगों में करें, तो भाग्य पूर्णत: साथ देता है. इस मूलांक के व्यक्ति शासन के शीर्ष पद पर देखे जाते हैं. छह एवं आठ अंक वाले इनके शत्रु हैं. इनकी शुभ दिशा ईशान कोण है.
मूलांक 2 : अंक दो का संबंध मन से है। यह मानसिक आकर्षण, हृदय की भावना, सहानुभूति, संदेह, घृणा एवं दुविधा दर्शाता है। इसका प्रतिनिधित्व चन्द्र को मिला है, इस अंक का स्वामी चंद्रमा है 2,11, 20, 29 तारीख अति शुभ हैं. रविवार, सोमवार एवं शुक्रवार श्रेष्ठ दिन हैं. सफेद एवं हल्का हरा इनके शुभ रंग हैं.
मूलांक 3 : इस अंक के स्वामी देव गुरु वृहस्पति हैं .इससे बढ़ोत्तरी, बुद्धि विकास क्षमता, धन वृद्धि एवं सफलता मिलती है। 3, 12, 21 एवं 30 तारीख इनके लिए विशेष शुभ हैं. मंगलवार, गुरुवार एवं शुक्रवार श्रेष्ठ है. पीला एवं गुलाबी रंग अतिशुभ है. शुभ माह जनवरी एवं जुलाई है. दक्षिण, पश्चिम एवं अग्नि कोण श्रेष्ठ दिशा है.
मूलांक 4 : इस अंक से मनुष्य की हैसियत, भौतिक सुख संपदा, सम्पत्ति, कब्जा, उपलब्धि एवं श्रेय प्राप्त होता है। इसका प्रतिनिधि हर्षल और राहु हैं. 2, 11, 20 एवं 29 तारीख शुभ है. रविवार, सोमवार एवं शनिवार श्रेष्ठ दिन हैं, जिसमें शनिवार सर्वश्रेष्ठ है. नीला एवं भूरा रंग शुभ है.
मूलांक 5 : इस अंक का स्वामी बुध है. शुभ तिथि 5, 14 एवं 23 है. सोमवार, बुधवार एवं शुक्रवार श्रेष्ठ है. उसमें शुक्रवार सर्वाधिक शुभ है. सफेद, खाकी एवं हल्का हरा रंग इनके लिए शुभ है. इनके लिए अशुभ अंक 2, 6 और 9 है.
मूलांक 6 : इस अंक का स्वामी शुक्र है. छह का अंक वैवाहिक जीवन, प्रेम एवं प्रेम-विवाह, आपसी संबंध, सहयोग, सहानुभूति, संगीत, कला, अभिनय एवं नृत्य का परिचायक है।शुभ तिथि माह की 6,15 एवं 24 तारीख है. मंगलवार, गुरुवार एवं शुक्रवार श्रेष्ठ दिन है जिसमें शुक्रवार सर्वश्रेष्ठ है. आसमानी, हल्का एवं गहरा नीला एवं गुलाबी रंग शुभ हैं. लाल एवं काले रंग का प्रयोग वर्जित है.
मूलांक 7 : इस अंक का स्वामी केतु है. सात का अंक आपसी ताल मेल, साझेदारी, समझौता, अनुबंध, शान्ति, आपसी सामंजस्य एवं कटुता को जन्म देता है।महीना के 7, 16 एवं 25 तारीख सर्वश्रेष्ठ है. 21 जून से 25 जुलाई तक का समय भी श्रेष्ठ है. रविवार, सोमवार एवं बुधवार श्रेष्ठ हैं. जिसमें सोमवार सर्वश्रेष्ठ है. शुभ रंग हरा, सफेद एवं हल्का पीला है.
मूलांक 8 : इस अंक का स्वामी शनि हैं. 8, 17 एवं 26 तारीख श्रेष्ठ तिथि हैं.शनि का अंक होने से इस अंक से क्षीणता, शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक कमजोरी, क्षति, हानि, पूर्ननिर्माण, मृत्यु, दुःख, लुप्त हो जाना या बहिर्गमन हो जाता है, रविवार, सोमवार एवं शनिवार शुभ हैं. जिसमें शनिवार सर्वाधिक शुभ है. भूरा, गहरा नीला, बैगनी, सफेद एवं काला शुभ रंग है. हृदय एवं वायु रोग इनके प्रभाव क्षेत्र हैं. दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम एवं दक्षिण-पूर्व दिशा शुभ हैं.
मूलांक 9 : अंक नौ का स्वामी मंगल है. इस मूलांक के लोगों पर मंगल ग्रह का प्रभाव सर्वाधिक है.यह अन्तिम ईकाई अंक होने से संघर्ष, युद्ध, क्रोध, ऊर्जा, साहस एवं तीव्रता देता है। इससे विभक्ति, रोष एवं उत्सुकता प्रकट होती है। इसका प्रतिनिधि मंगल ग्रह है जो युद्ध का देवता है 9, 18 एवं 27 श्रेष्ठ तारीख है. मंगलवार, गुरुवार एवं शुक्रवार शुभ दिन है. गहरा लाल एवं गुलाबी शुभ रंग है. पूर्व, उत्तर-पूर्व एवं उत्तर-पश्चिम दिशा अतिशुभ हैं. हनुमान जी की अराधना श्रेष्ठ है
(2)अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक (Name Number), मूलांक (Root Number) और भाग्यांक (Destiny Number) इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है.
अंक ज्योतिष (Numerology) भविष्य जानने की एक विधा है. अंक ज्योतिष से ज्योतिष की अन्य विधाओं की तरह भविष्य और सभी प्रकार के ज्योंतिषीय प्रश्नों का उत्तर ज्ञात किया जा सकता है. विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी अंक ज्योतिष और उसके उपाय काफी मददगार साबित होते हैं.
अंक ज्योंतिष अपने नाम के अनुसार अंक पर आधारित है. अंक शास्त्र के अनुसार सृष्टि के सभी गोचर और अगोचर तत्वों अपना एक निश्चत अंक होता है. अंकों के बीच जब ताल मेल नहीं होता है तब वे अशुभ या विपरीत परिणाम देते हैं. अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है. अगर वर और वधू के अंक आपस में मेल खाते हैं तो विवाह हो सकता है. अगर अंक मेल नहीं खाते हैं तो इसका उपाय करना होता है ताकि अंकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सके.
वैदिक ज्योतिष (Vedic Astrology) एवं उसके समानांतर चलने वाली ज्योतिष विधाओं में वर वधु के वैवाहिक जीवन का आंकलन करने के लिए जिस प्रकार से कुण्डली से गुण मिलाया जाता ठीक उसी प्रकार अंकशास्त्र में अंकों को मिलाकर (Numerology Marriage compatibility) वर वधू के वैवाहिक जीवन का आंकलन किया जाता है.
अंकशास्त्र से वर वधू का गुण मिलान (Matching for marriage through Numerology)
अंकशास्त्र में वर एवं वधू के वैवाहिक गुण मिलान के लिए, अंकशास्त्र के प्रमुख तीन अंकों में से नामांक ज्ञात किया जाता है. नामांक ज्ञात करने के लिए दोनों के नामों को अंग्रेजी के अलग अलग लिखा जाता है. नाम लिखने के बाद सभी अक्षरों के अंकों को जोड़ा जाता है जिससे नामांक ज्ञात होता है. ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि अगर मूलक 9 से अधिक हो तो योग से प्राप्त संख्या को दो भागों में बांटकर पुन: योग किया जाता है. इस प्रकार जो अंक आता है वह नामांक होता है. उदाहरण से योग 32 आने पर 3+2=5. वर का अंक 5 हो और कन्या का अंक 8 तो दोनों के बीच सहयोगात्मक सम्बन्ध रहेगा, अंकशास्त्र का यह नियम है.
वर वधू के नामांक का फल (Matching by Name Number)
अंकशास्त्र के नियम के अनुसार अगर वर का नामांक 1 है और वधू का नामांक भी एक है तो दोनों में समान भावना एवं प्रतिस्पर्धा रहेगी जिससे पारिवारिक जीवन में कलह की स्थिति होगी. कन्या का नामांक 2 होने पर किसी कारण से दोनों के बीच तनाव की स्थिति बनी रहती है. वर 1 नामांक का हो और कन्या तीन नामांक की तो उत्तम रहता है दोनों के बीच प्रेम और परस्पर सहयोगात्मक सम्बन्ध रहता है. कन्या 4 नामंक की होने पर पति पत्नी के बीच अकारण विवाद होता रहता है और जिससे गृहस्थी में अशांति रहती है. पंचम नामंक की कन्या के साथ गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है. सप्तम और नवम नामाक की कन्या भी 1 नामांक के वर के साथ सुखमय वैवाहिक जीवन का आनन्द लेती है जबकि षष्टम और अष्टम नामांक की कन्या और 1 नमांक का वर होने पर वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है.
वर का नामांक 2 हो और कन्या 1 व 7 नामांक की हो तब वैवाहिक जीवन के सुख में बाधा आती है. 2 नामांक का वर इन दो नामांक की कन्या के अलावा अन्य नामांक वाली कन्या के साथ विवाह करता है तो वैवाहिक जीवन आनन्दमय और सुखमय रहता है. तीन नामांक की कन्या हो और वर 2 नामांक का तो जीवन सुखी होता है परंतु सुख दुख धूप छांव की तरह होता है. वर 3 नामांक का हो और कन्या तीन, चार अथवा पांच नामांक की हो तब अंकशास्त्र के अनुसार वैवाहिक जीवन उत्तम नहीं रहता है. नामांक तीन का वर और 7 की कन्या होने पर वैवाहिक जीवन में सुख दु:ख लगा रहता है. अन्य नामांक की कन्या का विवाह 3 नामांक के पुरूष से होता है तो पति पत्नी सुखी और आनन्दित रहते हैं.
4 अंक का पुरूष हो और कन्या 2, 4, 5 अंक की हो तब गृहस्थ जीवन उत्तम रहता है. चतुर्थ वर और षष्टम या अष्टम कन्या होने पर वैवाहिक जीवन में अधिक परेशानी नहीं आती है. 4 अंक के वर की शादी इन अंकों के अलावा अन्य अंक की कन्या से होने पर गृहस्थ जीवन में परेशानी आती है. 5 नामांक के वर के लिए 1, 2, 5, 6, 8 नामांक की कन्या उत्तम रहती है. चतुर्थ और सप्तम नामांक की कन्या से साथ गृहस्थ जीवन मिला जुला रहता है जबकि अन्य नामांक की कन्या होने पर गृहस्थ सुख में कमी आती है. षष्टम नामांक के वर के लिए 1एवं 6 अंक की कन्या से विवाह उत्तम होता है. 3, 5, 7, 8 एवं 9 नामांक की कन्या के साथ गृहस्थ जीवन सामान्य रहता है और 2 एवं चार नामांक की कन्या के साथ उत्तम वैवाहिक जीवन नहीं रह पाता.
वर का नामांक 7 होने पर कन्या अगर 1, 3, 6, नामांक की होती है तो पति पत्नी के बीच प्रेम और सहयोगात्मक सम्बन्ध होता है. कन्या अगर 5, 8 अथवा 9 नामंक की होती है तब वैवाहिक जीवन में थोड़ी बहुत परेशानियां आती है परंतु सब सामान्य रहता है. अन्य नामांक की कन्या होने पर पति पत्नी के बीच प्रेम और सहयोगात्मक सम्बन्ध नहीं रह पाता है. आठ नामांक का वर 5, 6 अथवा 7 नामांक की कन्या के साथ विवाह करता है तो दोनों सुखी होते हैं. 2 अथवा 3 नामांक की कन्या से विवाह करता है तो वैवाहिक जीवन सामान्य बना रहता है जबकि अन्य नामांक की कन्या से विवाह करता है तो परेशानी आती है. 9 नामांक के वर के लिए 1, 2, 3, 6 एवं 9 नामांक की कन्या उत्तम होती है जबकि 5 एवं 7 नामांक की कन्या सामान्य होती है. 9 नामांक के वर के लिए 4 और 8 नामांक की कन्या से विवाह करना अंकशास्त्र की दृष्टि से शुभ नही होता है.
अंक ज्योतिष (Numerology)
संसार में ज्योतिष की कई शाखाऎं (Branches Of Astrology) हैं, जिनमें से अंक ज्योतिष भी एक है. सामान्यतय ज्योतिष में ग्रहो का प्रभाव कार्य करता है. प्रत्येक ग्रह किसी न किसी नम्बर से जुडा हुआ है या हुम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि कोइ एक नम्बर किसी ग्रह विशेष का प्रतिनिधित्व करता है,
जैसे कि 1 नम्बर सूर्य (1 Number of Sun), 2 नम्बर चन्द्र (2 Number of Moon) तथा 9 नम्बर मंगल (9 Number Of Mars) या इत्यादि. नम्बर 1 से 9 तक ही लिए जाते हैं. 0 को इसमें सम्मिलित नही किया गया है. ग्रह भी 9 ही होते हैं, अतः प्रत्येक ग्रह का एक विशेष अंक है. पाश्चात्य अंक ज्योतिष (Numerology) सात ग्रहो के अलावा नैपच्यून व यूरेनस को क्रमशः आठवाँ व नौवा ग्रह मानता है. जबकि भारतीय अंक ज्योतिष राहु-केतु को आठवें एंव नवें ग्रह के रुप में लेता है. भारतीय एंव पाश्चात्य अंक ज्योतिष के फलादेश (Jyotish Phaladesh) कथन में थोडा सा अन्तर रहता है…………अब हम अंक ज्योतिष विज्ञान के कार्य करने के तरीके (Method Of Numerology) की विवेचना करेंगे. वैसे तो अंक ज्योतिष में बहुत सारी परिभाषाएँ सामने आती हैं, परन्तु हम इसमें मुख्य रुप से दो परिभाषाओ मूलांक (Root Number/ Ruling Number) तथा भाग्यांक (Fadic Number) की ही चर्चा करेंगे. किसी भी व्यक्ति की जन्म तारीख उसका मूल्यांक होता है. जैसे कि 2 जुलाई को जन्मे व्यक्ति का मूलांक 2 होता है तथा 14 सितम्बर वाले का 1+4 = 5. तथा किसी भी व्यक्ति की सम्पूर्ण जन्म तारीख के योग को घटा कर एक अंक की संख्या को उस व्यक्ति विशेष का भाग्यांक( Bhagya Anka) कहते हैं, जैसे कि 2 जुलाई 1966 को जन्मे व्यक्ति का भाग्यांक 2+07+1+9+6+6= 31 = 3+1= 4, होगा. मूलांक तथा भाग्यांक स्थिर होते हैं, इनमें परिवर्तन सम्भव नही. क्योंकि किसी भी तरीके से व्यक्ति की जन्म तारीख बदली नही जा सकती…………
व्यक्ति का एक और अंक होता है जिसे सौभाग्य अंक (Destiny Number/ Lucky Number) कहते हैं. यह नम्बर परिवर्तनशील है. व्यक्ति के नाम के अक्षरो के कुल योग से बनने वाले अंक को सौभाग्य अंक कहा जाता है, जैसे कि मान लो किसी व्यक्ति का नाम RAMAN है, तो उसका सौभाग्य अंक R=2, A=1, M=4, A=1, एंव N=5 = 2+1+4+1+5 =13 =1+3 =4 होगा. यदि किसी व्यक्ति का सौभाग्य अंक उसके अनुकूल नही है तो उसके नाम के अंको में घटा जोड करके सौभाग्य अंक (Saubhagya Anka) को परिवर्तित कर सकते हैं, जिससे कि वह उस व्यक्ति के अनुकूल हो सके. सौभाग्य अंक का सीधा सम्बन्ध मूलांक से होता है. व्यक्ति के जीवन में सबसे अधिक प्रभाव मूलांक का होता है. चूंकि मूलांक स्थिर अंक होता है तो वह व्यक्ति के वास्तविक स्वभाव को दर्शाता है तथा मूलांक का तालमेल ही सौभाग्य अंक से बनाया जाता है.
व्यक्ति के जीवन में उतार-चढाव का कारण सौभाग्य अंक होता है. उदाहरण के लिए मान लो कि हम किसी शहर में जाकर नौकरी/ व्यवसाय करना चाहते हैं, तो हमें उस शहर का शुभांक (Shubha Anka) मालूम करना होगा फिर उस शुभांक को स्वंय के सौभाग्य अंक से तुलना करेंगे. यदि दोनो अंको में बेहतर ताल-मेल है अर्थात दोनो अंक आपस में मित्र ग्रुप के है तो वह शहर आपके अनुकूल होगा, और यदि दोनो अंक एक दूसरे से शत्रुवत व्यवहार रखते हैं तो उस शहर में आपके कार्य की हानि होगी. अब हमारे सामने दो विकल्प हैं, एक तो हम उस शहर विशेष को ही त्याग दें तथा अन्य किसी शहर में चले जायें, यदि एसा करना सम्भव न हो तो दूसरे विकल्प के रुप में हम अपने नाम के अक्षरो में इस प्रकार परिवर्तन करें कि वो उस शहर विशेष से भली भांति तालमेल बैठा लें. यही सबसे सरल तरीका है.
इस प्रकार हम अंक ज्योतिष के माध्यम से अपने जीवन को सुखी एंव समृद्ध बना सकते है एंव दुख व कष्टो को कम कर सकते हैं……………………….

(3).आपका मूलांक और व्यवसाय……………………………………………………………………..
जिनका जन्म 1, 10, 19, 28 तारीख को हुआ है, उनका मूलांक एक होता है। एक अंक सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। एक अंक से प्रभावित व्यक्ति किसी के नियंत्रण में काम करना पसंद नहीं करते हैं। आजीविका की दृष्टि से आपके लिए दवा, ऊन, धान्य, सोना, मोती आदि का व्यापार अनुकूल रहेगा तथा इन क्षेत्रों में आप विशेष सफल होंगे।
जिनका जन्म 2, 11, 20, 23 तारीख को हुआ है, उनका मूलांक 2 होता है। अंक 2 का स्वामी चंद्रमा है। मूलांक दो वाले कोमल तथा बहुत ही सुंदर होते हैं। ये विनम्र, कल्पनाशील और भावुक होते हैं। आजीविका की दृष्टि से आपके लिए मोती, कृषि, बच्चों के खिलौने, फैंसी स्टोर, रेडीमेड स्टोर आदि का व्यापार विशेष सफलतादायक होगा।
जिनका जन्म 3, 12, 21, 30 तारीख को हुआ है, उनका मूलांक 3 होता है। अंक 3 का प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है। तीन अंक वाले जातक निश्चित रू प से महत्वाकांक्षी तथा अनुशासनप्रिय होते हैं। अध्यापन वृत्ति तथा स्टेशनरी आदि के व्यापार से आजीविका प्राप्त होती है। 3 मूलांक के व्यक्ति अधिकांशत: सरकारी संस्थाओं में उच्च पदासीन देखे जाते हैं।
जिन व्यक्तियों का जन्म 4, 13, 22, 31 तारीख को होता है उनका मूलांक 4 होता है। भारतीय पद्धति के अनुसार इसका स्वामी ग्रह राहु है। इस अंक वाले व्यक्ति सात्विक ह्वदय एवं उदार प्रवृत्ति के होते हैं। ये स्पष्टवादी होते हैं। जीवन में प्राय: विरोधियों का सामना करना पड़ता है। आजीविका की दृष्टि से आपके लिए रेलवे, वायुयान, खान, तकनीक कार्य, पुरातत्व, ज्योतिष आदि कार्य अनुकूल रहेंगे।
जिनका जन्म 5, 14, 23 तारीख को होता है उनका मूलांक 5 होता है। अंक 5 का अधिष्ठाता बुध ग्रह है। पांच अंक वाले जातक वाक्पटु, व्यापारिक मानसिक वाले, पुष्ट शरीर व ठिगने कद के होते हैं। आजीविका की दृष्टि से आपके लिए लकड़ी का कारखाना, फर्नीचर, ज्योतिष, वैद्यक आदि कार्य सफलतादायक होंगे।
जिनका जन्म 6, 15, 24 तारीख को होता है उनका मूलांक 6 होता है। अंक 6 का स्वामी शुक्र है। इस अंक वाले लोगों में आकर्षण शक्ति विशेष होती है। ये लोकप्रिय होते हैं। आजीविका की दृष्टि से आपके लिए चौपायों के खरीदने-बेचने का कार्य, गुड़, चावल, किराना का व्यापार अथवा फैंसी स्टोर के व्यापार में सफलता प्राप्त होती है।
जिन व्यक्तियों का जन्म 7, 16, 25 तारीख को होता है उनका मूलांक 7 होता है। 7 अंक से प्रभावित जातक उग्र स्वभाव के, मौलिकतावादी, प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी होते हैं। 7 अंक का अधिष्ठाता नेपच्यून [वरूण] ग्रह है। आजीविका की दृष्टि से आप दवा, घास, स्वर्ण, सेना में कार्य सफलतादायक होगा।
जिन व्यक्तियों का जन्म 8, 17, 26 तारीख को होता है उनका मूलांक 8 होता है। 8 अंक से प्रभावित जातक स्वभाव से हर बात की गहराई में जाने वाले होते हैं। ऎसे व्यक्ति जीवकाल में महžवपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अंक 8 का स्वामी शनि है। आजीविका की दृष्टि से आप लोहे का व्यापार, तिल, तेल, ऊन आदि के व्यापार में विशेष प्रगति पा सकते हैं।
जिन व्यक्तियों का जन्म 9, 18, 27 तारीख को होता है उनका मूलांक 9 होता है। 9 अंक का स्वामी मंगल है। 9 अंक से प्रभावित जातक तेजस्वी व उग्र स्वभाव के होते हैं। आजीविका की दृष्टि से आप तांबा व पीतल के बर्तनों की दुकान एवं कोयला आदि के व्यापार में, सोना, पुलिस आदि क्षेत्रों में शीघ्र सफलता प्राप्त कर सकते हैं। -………………….

अंक ज्योतिष के अनुसार निन्म उपाय करे
मूलांक १ – श्री गणेश की पूजा करे और महीने में एक रविवार को गेहू दान करे
मूलांक २ – महालक्ष्मी की पूजा करे और महीने में एक सोमवार को चावल का दान करे
मूलांक ३ – श्री गणेश और लक्ष्मी की साथ में पूजा करे और महीने में एक गुरुवार को चने की दाल का दान करे
मूलांक ४ – श्री हनुमानजी का पूजन करे और महीने में एक शनिवार को काले तिल का दान करे
मूलांक ५ – श्री हरी विष्णु का पूजन करे और महीने में एक बुधवार को साबुत मुंग का दान करे
मूलांक ६ – आशुतोष शिव का पूजन करे और महीने में एक बार बुधवार को गाय को हरा चारा डाले
मूलांक ७ – हररोज शिवलिंग पर जलाभिषेक करे और हर मंगलवार को सफ़ेद तिल का दान करे
मूलांक ८ – श्री कृष्ण का पूजन करे और महीने के हर शनिवार को साबुत मुंग का दान करे
मूलांक ९ – श्री भैरव का पूजन करे और महीने में हर मंगलवार को मसूर की दाल का दान

1..गाड़ी नंबर और रंग

यदि आप अपनी गाड़ी का नंबर और रंग, अंक ज्योतिष के अनुसार रखें तो भविष्यमें होने वाली दुर्घटनाएं टल जाती है। जानिए अंक ज्यातिष के अनुसार कैसाहोना चाहिए आपका गाड़ी नंबर और रंग..
अंक- 1 आपको अपने वाहन के नंबर काकुल योग 1, 2, 4 या 7 रखना चाहिये। पीले, सुनहरे, अथवा हल्के रंग के वाहनखरीदना चाहिए। आप 6 या 8 नंबर वाला वाहन न रखें साथ ही नीले, भूरे, बैंगनीया काले रंग के वाहन न खरीदें।
अंक- 2 आपके लिए वो वाहन अनुकूल है जिनकाकुल योग 1, 2, 4 या 7 हो। 9 नंबर वाले वाहन ना रखें। आप सफेद अथवा हल्केरंग का वाहन खरीदें। लाल अथवा गुलाबी रंग की वाहन न लें।
अंक-3 आपकीगाड़ी नंबर का कुल योग 3,6, या 9 होना चाहिये। 5 या 8 नंबर वाला वाहन आपकेलिए अच्छा नही रहेगा। पीले, बैंगनी, या गुलाबी रंग का वाहन खरीदें। हल्केहरे, सफेद ,भुरे रंग के वाहनों से बचें।
अंक-4 इस अंक वालों की गाड़ीनंबर का कुल योग 1, 2, 4 या 7 होना चाहिये। इनको 9, 6 या 8 नंबर वाले वाहनसे हानि हो सकती है। नीले या भूरे रंग के वाहन खरीदें और गुलाबी या कालेरंग की वाहन न खरीदें।
अंक-5 अगर आपका मूलांक 5 है तो आपको गाड़ी नंबरका कुल योग 5 रखना चाहिये। 3, 9 या 8 नंबर वाला वाहन ना रखें। हल्के हरे, सफेद अथवा भुरे रंग का वाहन खरीदें। पीले, गुलाबी या काले रंग की वाहन सेहानि हो सकती है।
अंक-6 मूलांक 6 वालों को गाड़ी नंबर का कुल योग 3, 6, या 9 रखना चाहिये। 4 या 8 नंबर से बचें। आपको हल्के नीले, गुलाबी, अथवापीले रंग का वाहन खरीदना चाहिए। काले रंग का वाहन क्रय करने से बचें।
अंक -7 आपकी गाड़ी नंबर का कुल योग 1, 2, 4 या 7 होना चाहिए। 9 या 8 नंबर वालावाहन नही होना चाहिए। नीले, या सफेद रंग का वाहन खरीदें।
अंक-8 इस अंकवालों को अपना गाड़ी नंबर का कुल योग 8 रखना चाहिये। 1 या 4 नंबर वाला वाहनना रखें तो बेहतर होगा. आपका अंक शनि का अंक है। इसलिए आप काले, नीले, अथवा बैगनी रंग के वाहन खरीदें।
अंक-9 मूलांक 9 वाले लोग आपनी गाड़ीनंबर का कुल योग 9, 3, या 6 रखे तो उन्हे अच्छा लाभ मिलता है। 5 या 7 नंबरवाले वाहन से नुकसान हो सकता है। बेहतर होगा आप लाल, या गुलाबी रंग का वाहनखरीदें।
यदि आपने कोई नया वाहन खरीदा हैं और आपके मन में हमेशा यही डरबना रहता है कि आपके या आपके परिवार के किसी भी सदस्य की थोड़ी सी भीलापरवाही से कहीं आपकी नए वाहन का एक्सीडेंट न हो जाए। कई बार हमारे साथऐसा होता है कि नए वाहन खरीदने के कुछ दिनों के भीतर ही कोई एक्सीडेंट होजाता है। वाहन में खराबी आ जाती है। आपको भी चोट लगती है। आपकी अशुभ ग्रहोंकी दशा या अंतरदशा चल रही हैं या अनजाने में आपने अशुभ मुहूर्त में वाहनखरीद लिया हैं, तो घबराए नहीं नीचे लिखे उपाय को अपनाकर आप किसी भी तरह कीवाहन दुर्घटना को टाल सकते हैं।- शनिवार को काले रंग की एक पोटली में कालेतिल, सुपारी और सिन्दूर रखकर उसे अपने वाहन पर आगे की ओर बांध दें। इस उपायको अपनाकर आप अपने वाहन को किसी भी तरह की दुर्घटना से बचा सकते हैं।
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नवरात्रि देवी पूजन की सही और सरल विधिदेवी कृपा पाने के सरल प्रयोग ।

नवरात्रि  देवी पूजन की सही और सरल विधि
देवी कृपा पाने के सरल प्रयोग ।
शक्ति के लिए देवी आराधना की सुगमता का कारण मां की करुणा, दया, स्नेह का भाव किसी भी भक्त पर सहज ही हो जाता है। ये कभी भी अपने बच्चे (भक्त) को किसी भी तरह से अक्षम या दुखी नहीं देख सकती है। उनका आशीर्वाद भी इस तरह मिलता है, जिससे साधक को किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वह स्वयं सर्वशक्तिमान हो जाता है।
इनकी प्रसन्नता के लिए कभी भी उपासना की जा सकती है, क्योंकि शास्त्राज्ञा में चंडी हवन के लिए किसी भी मुहूर्त की अनिवार्यता नहीं है। नवरात्रि में इस आराधना का विशेष महत्व है। इस समय के तप का फल कई गुना व शीघ्र मिलता है। इस फल के कारण ही इसे कामदूधा काल भी कहा जाता है। देवी या देवता की प्रसन्नता के लिए पंचांग साधन का प्रयोग करना चाहिए। पंचांग साधन में पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्रोत हैं। पटल का शरीर, पद्धति को शिर, कवच को नेत्र, सहस्त्रनाम को मुख तथा स्रोत को जिह्वा कहा जाता है।
इन सब की साधना से साधक देव तुल्य हो जाता है। सहस्त्रनाम में देवी के एक हजार नामों की सूची है। इसमें उनके गुण हैं व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। इन नामों से हवन करने का भी विधान है। इसके अंतर्गत नाम के पश्चात नमः लगाकर स्वाहा लगाया जाता है।
हवन की सामग्री के अनुसार उस फल की प्राप्ति होती है। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामों से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्त्रार्चन के लिए देवी की सहस्त्र नामावली जो कि बाजार में आसानी से मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ती है।

इस नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर भी देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार होना चाहिए।
अर्चन में बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।
अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करना चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य लगाना चाहिए। दीपक इस तरह होना चाहिए कि पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहे। अर्चनकर्ता को स्नानादि आदि से शुद्ध होकर धुले कपड़े पहनकर मौन रहकर अर्चन करना चाहिए।
इस साधना काल में आसन पर बैठना चाहिए तथा पूर्ण होने के पूर्व उसका त्याग किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। अर्चन के उपयोग में प्रयुक्त सामग्री अर्चन उपरांत किसी साधन, ब्राह्मण, मंदिर में देना चाहिए। कुंकुम से भी अर्चन किए जा सकते हैं। इसमें नमः के पश्चात बहुत थोड़ा कुंकुम देवी पर अनामिका-मध्यमा व अंगूठे का उपयोग करके चुटकी से चढ़ाना चाहिए।
बाद में उस कुंकुम से स्वयं को या मित्र भक्तों को तिलक के लिए प्रसाद के रूप में दे सकते हैं। सहस्त्रार्चन नवरात्र काल में एक बार कम से कम अवश्य करना चाहिए। इस अर्चन में आपकी आराध्य देवी का अर्चन अधिक लाभकारी है। अर्चन प्रयोग बहुत प्रभावशाली, सात्विक व सिद्धिदायक होने से इसे पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करना चाहिए।
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पीताम्बरा पीठ दतिया

पीताम्बरा पीठ दतिया 
पीताम्बरा पीठ दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश में स्थित है। यह देश के लोकप्रिय शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि कभी इस स्थान पर श्मशान हुआ करता था, लेकिन आज एक विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। स्थानील लोगों की मान्यता है कि मुकदमे आदि के सिलसिले में माँ पीताम्बरा का अनुष्ठान सफलता दिलाने वाला होता है। पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही 'माँ धूमावती देवी' का मन्दिर है, जो भारत में भगवती धूमावती का एक मात्र मन्दिर है।
स्थापना
मध्य प्रदेश के दतिया शहर में प्रवेश करते ही पीताम्बरा पीठ है। यहाँ पहले कभी श्मशान हुआ करता था, आज विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। पीताम्बरा पीठ की स्थापना एक सिद्ध संत, जिन्हें लोग स्वामीजी महाराज कहकर पुकारते थे, ने 1935 में की थी। श्री स्वामी महाराज ने बचपन से ही संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे यहाँ एक स्वतंत्र अखण्ड ब्रह्मचारी संत के रूप में निवास करते थे। स्वामीजी प्रकांड विद्वान व प्रसिद्ध लेखक थे। उन्हेंने संस्कृत, हिन्दी में कई किताबें भी लिखी थीं। गोलकवासी स्वामीजी महाराज ने इस स्थान पर 'बगलामुखी देवी' और धूमावती माई की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। यहाँ बना वनखंडेश्वर मन्दिर महाभारत कालीन मन्दिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। इसके अलावा इस मन्दिर परिसर में अन्य बहुत से मन्दिर भी बने हुए हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालुओं का यहाँ आना-जाना लगा रहता है|
प्रतिमा-9760924411
पीताम्बरा देवी की मूर्ति के हाथों में मुदगर, पाश, वज्र एवं शत्रुजिव्हा है। यह शत्रुओं की जीभ को कीलित कर देती हैं। मुकदमे आदि में इनका अनुष्ठान सफलता प्राप्त करने वाला माना जाता है। इनकी आराधना करने से साधक को विजय प्राप्त होती है। शुत्र पूरी तरह पराजित हो जाते हैं। यहाँ के पंडित तो यहाँ तक कहते हैं कि, जो राज्य आतंकवाद व नक्सलवाद से प्रभावित हैं, वह माँ पीताम्बरा की साधना व अनुष्ठान कराएँ, तो उन्हें इस समस्या से निजात मिल सकती है।
धूमावती मन्दिर
पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही माँ भगवती धूमावती देवी का देश का एक मात्र मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर परिसर में माँ धूमावती की स्थापना न करने के लिए अनेक विद्वानों ने स्वामीजी महाराज को मना किया था। तब स्वामी जी ने कहा कि- "माँ का भयंकर रूप तो दुष्टों के लिए है, भक्तों के प्रति ये अति दयालु हैं।" समूचे विश्व में धूमावती माता का यह एक मात्र मन्दिर है। जब माँ पीताम्बरा पीठ में माँ धूमावती की स्थापना हुई थी, उसी दिन स्वामी महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने की तैयारी शुरू कर दी थी। ठीक एक वर्ष बाद माँ धूमावती जयन्ती के दिन स्वामी महाराज ब्रह्मलीन हो गए। माँ धूमावती की आरती सुबह-शाम होती है, लेकिन भक्तों के लिए धूमावती का मन्दिर शनिवार को सुबह-शाम 2 घंटे के लिए खुलता है। माँ धूमावती को नमकीन पकवान, जैसे- मंगोडे, कचौड़ी व समोसे आदि का भोग लगाया जाता है।
ऐतिहासिक सत्य
माँ पीताम्बरा बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक है। पीताम्बरा पीठ मन्दिर के साथ एक ऐतिहासिक सत्य भी जुड़ा हुआ है। सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। भारत के मित्र देशों रूस तथा मिस्र ने भी सहयोग देने से मना कर दिया था। तभी किसी योगी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से स्वामी महाराज से मिलने को कहा। उस समय नेहरू दतिया आए और स्वामीजी से मिले। स्वामी महाराज ने राष्ट्रहित में एक यज्ञ करने की बात कही। यज्ञ में सिद्ध पंडितों, तांत्रिकों व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यज्ञ का यजमान बनाकर यज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ के नौंवे दिन जब यज्ञ का समापन होने वाला था तथा पूर्णाहुति डाली जा रही थी, उसी समय 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का नेहरू जी को संदेश मिला कि चीन ने आक्रमण रोक दिया है। मन्दिर प्रांगण में वह यज्ञशाला आज भी बनी हुई है।
श्री बगलामुखी का एक प्रसिद्ध नाम श्री पीताम्बरा भी है। यह त्रिपुर सुंदरी शक्ति श्री विष्णु की आराधना से ही माता बगला के रूप में प्रकट हुईं। यह वैष्णवी शक्ति हैं। यह शिव मृत्युंजय की शक्ति कहलाती हैं। यह सिद्ध विद्या श्रीकुल की ब्रह्म विद्या हैं। दश महाविद्या में आद्या महाकाली ही प्रथम उपास्य हैं। इनकी कृपा हो तो साधना में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। इनकी साधना वाम या दक्षिण मार्ग से किया जाता है, परंतु बगला शक्ति विशेषकर दक्षिण मार्ग से ही उपास्य हैं। श्री बगला पराशक्ति की साधना अति गोपनीयता के साथ की जाती है। इनकी उपासना ऋषि-मुनि के अतिरिक्त देवता भी करते हैं। जनमानस के हेतु इनकी साधना सुलभ बनाने के लिए साक्षात् शिव को 'श्री स्वामी' के रूप में मानव शरीर धारण कर दतिया, मध्य प्रदेश में श्री पीताम्बरा पीठ की स्थापना करनी पड़ी। श्री स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'श्री बगलामुखी रहस्य' अति सुंदर और साधकों के लिए कृपा स्वरूप है। श्री बगलामुखी के साधक को गंभीर एवं निडर होने के साथ-साथ शुद्ध एवं सरल चित्त का होना चाहिए। श्री बगला स्तंभन की देवी भी है त्रिशक्ति रूप के कारण स्तंभन के साथ-साथ भोग एवं मोक्षदायिनी भी हैं। बगलामुखी की साधना बिना गुरु के भूल कर भी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा थोड़ी सी भी चूक से साधक के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित हो जाता है। मणिद्वीप वासिनी काली भुवनेश्वरी माता ही बगलामुखी हैं। इनकी अंग पूजा में शिव, मृत्युंजय, श्री गणेश, बटुक भैरव और विडालिका यक्षिणी का पूजन किया जाता है। कई जन्मों के पुण्य प्रताप से ही इनकी उपासना सिद्ध होती है। विद्वानों का मत है कि विश्व की अन्य सारी शक्तियां संयुक्त होकर भी माता बगला की बराबरी नहीं कर सकती हैं। इनके मंत्र का जप सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। इनके मंत्र के जप से अनेक प्रकार की चमत्कारिक अनुभूतियां होने लगती हैं। अलग-अलग कामनाओं की सिद्धि हेतु जप के लिए हरिद्रा, पीले हकीक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए। देवी को चंपा, गुलाब, कनेल और कमल के फूल विशेष प्रिय हैं। इनकी साधना किसी शिव मंदिर या माता मंदिर में अथवा किसी पर्वत पर या पवित्र जलाशय के पास गुरु के सान्निध्य में विशेष सिद्धिप्रद होता है। वैसे घर में भी किसी एकांत स्थान पर दैनिक उपासना की जा सकती है। श्री बगला के एकाक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुराक्षरी, पंचाक्षरी, अष्टाक्षरी, नवाक्षरी, एकादशाक्षरी और षट्त्रिंशदाक्षरी मंत्र विशेष सिद्धिदायक हैं। सभी मंत्रों का विनियोग, न्यास और ध्यान अलग-अलग हैं। इनके अतिरिक्त 80, 100, 126 अक्षरों मंत्रों के साथा 514 अक्षरों के बगला माला मंत्र की भी विशेष महिमा है। 666 अक्षर का ब्रह्मास्त्र माला मंत्र भी है। इसके अलावा और भी अनेकानेक मंत्र हैं, जिनका उल्लेख सांखयायन तंत्र में मिलता है। मनोकामना की सिद्धि के लिए बगला स्तोत्र, कवच और बगलास्त्र का गोपनीय पाठ भी किया जाता है। साथ ही बगला गायत्री और कीलक भी है। घृत, शक्कर, मधु और नमक से हवन करने पर आकर्षण होता है। शहद, शक्कर मिश्रित दूर्वा, गुरुच और धान के लावा से हवन करने पर रोगों से मुक्ति मिलती है। कार्य विशेष के लिए विशेष माला, विशेष मंत्र और विशेष हवन का विशेष प्रयोग होता है।9760924411
'पीताम्बरा पीठ दतिया श्री बगलामुखी महिमा 
 पीताम्बरा पीठ दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश में स्थित है। यह देश के लोकप्रिय शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि कभी इस स्थान पर श्मशान हुआ करता था, लेकिन आज एक विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। स्थानील लोगों की मान्यता है कि मुकदमे आदि के सिलसिले में माँ पीताम्बरा का अनुष्ठान सफलता दिलाने वाला होता है। पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही 'माँ धूमावती देवी' का मन्दिर है, जो भारत में भगवती धूमावती का एक मात्र मन्दिर है। स्थापना मध्य प्रदेश के दतिया शहर में प्रवेश करते ही पीताम्बरा पीठ है। यहाँ पहले कभी श्मशान हुआ करता था, आज विश्वप्रसिद्ध मन्दिर है। पीताम्बरा पीठ की स्थापना एक सिद्ध संत, जिन्हें लोग स्वामीजी महाराज कहकर पुकारते थे, ने 1935 में की थी। श्री स्वामी महाराज ने बचपन से ही संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे यहाँ एक स्वतंत्र अखण्ड ब्रह्मचारी संत के रूप में निवास करते थे। स्वामीजी प्रकांड विद्वान व प्रसिद्ध लेखक थे। उन्हेंने संस्कृत, हिन्दी में कई किताबें भी लिखी थीं। गोलकवासी स्वामीजी महाराज ने इस स्थान पर 'बगलामुखी देवी' और धूमावती माई की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। यहाँ बना वनखंडेश्वर मन्दिर महाभारत कालीन मन्दिरों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। इसके अलावा इस मन्दिर परिसर में अन्य बहुत से मन्दिर भी बने हुए हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालुओं का यहाँ आना-जाना लगा रहता है| 
पीताम्बरा देवी की मूर्ति के हाथों में मुदगर, पाश, वज्र एवं शत्रुजिव्हा है। यह शत्रुओं की जीभ को कीलित कर देती हैं। मुकदमे आदि में इनका अनुष्ठान सफलता प्राप्त करने वाला माना जाता है। इनकी आराधना करने से साधक को विजय प्राप्त होती है। शुत्र पूरी तरह पराजित हो जाते हैं। यहाँ के पंडित तो यहाँ तक कहते हैं कि, जो राज्य आतंकवाद व नक्सलवाद से प्रभावित हैं, वह माँ पीताम्बरा की साधना व अनुष्ठान कराएँ, तो उन्हें इस समस्या से निजात मिल सकती है। धूमावती मन्दिर ।
 पीताम्बरा पीठ के प्रांगण में ही माँ भगवती धूमावती देवी का देश का एक मात्र मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर परिसर में माँ धूमावती की स्थापना न करने के लिए अनेक विद्वानों ने स्वामीजी महाराज को मना किया था। तब स्वामी जी ने कहा कि- "माँ का भयंकर रूप तो दुष्टों के लिए है, भक्तों के प्रति ये अति दयालु हैं।" समूचे विश्व में धूमावती माता का यह एक मात्र मन्दिर है। जब माँ पीताम्बरा पीठ में माँ धूमावती की स्थापना हुई थी, उसी दिन स्वामी महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने की तैयारी शुरू कर दी थी। ठीक एक वर्ष बाद माँ धूमावती जयन्ती के दिन स्वामी महाराज ब्रह्मलीन हो गए। माँ धूमावती की आरती सुबह-शाम होती है, लेकिन भक्तों के लिए धूमावती का मन्दिर शनिवार को सुबह-शाम 2 घंटे के लिए खुलता है। माँ धूमावती को नमकीन पकवान, जैसे- मंगोडे, कचौड़ी व समोसे आदि का भोग लगाया जाता है। ऐतिहासिक सत्य है।
 माँ पीताम्बरा बगलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक है। पीताम्बरा पीठ मन्दिर के साथ एक ऐतिहासिक सत्य भी जुड़ा हुआ है। सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। भारत के मित्र देशों रूस तथा मिस्र ने भी सहयोग देने से मना कर दिया था। तभी किसी योगी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से स्वामी महाराज से मिलने को कहा। उस समय नेहरू दतिया आए और स्वामीजी से मिले। स्वामी महाराज ने राष्ट्रहित में एक यज्ञ करने की बात कही। यज्ञ में सिद्ध पंडितों, तांत्रिकों व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यज्ञ का यजमान बनाकर यज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ के नौंवे दिन जब यज्ञ का समापन होने वाला था तथा पूर्णाहुति डाली जा रही थी, उसी समय 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का नेहरू जी को संदेश मिला कि चीन ने आक्रमण रोक दिया है। मन्दिर प्रांगण में वह यज्ञशाला आज भी बनी हुई है। श्री बगलामुखी महिमा राज शिवम मा ता श्री बगलामुखी का एक प्रसिद्ध नाम श्री पीताम्बरा भी है। यह त्रिपुर सुंदरी शक्ति श्री विष्णु की आराधना से ही माता बगला के रूप में प्रकट हुईं। यह वैष्णवी शक्ति हैं। यह शिव मृत्युंजय की शक्ति कहलाती हैं। यह सिद्ध विद्या श्रीकुल की ब्रह्म विद्या हैं। दश महाविद्या में आद्या महाकाली ही प्रथम उपास्य हैं। इनकी कृपा हो तो साधना में शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। इनकी साधना वाम या दक्षिण मार्ग से किया जाता है, परंतु बगला शक्ति विशेषकर दक्षिण मार्ग से ही उपास्य हैं। श्री बगला पराशक्ति की साधना अति गोपनीयता के साथ की जाती है। इनकी उपासना ऋषि-मुनि के अतिरिक्त देवता भी करते हैं। जनमानस के हेतु इनकी साधना सुलभ बनाने के लिए साक्षात् शिव को 'श्री स्वामी' के रूप में मानव शरीर धारण कर दतिया, मध्य प्रदेश में श्री पीताम्बरा पीठ की स्थापना करनी पड़ी। श्री स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'श्री बगलामुखी रहस्य' अति सुंदर और साधकों के लिए कृपा स्वरूप है। श्री बगलामुखी के साधक को गंभीर एवं निडर होने के साथ-साथ शुद्ध एवं सरल चित्त का होना चाहिए। श्री बगला स्तंभन की देवी भी है त्रिशक्ति रूप के कारण स्तंभन के साथ-साथ भोग एवं मोक्षदायिनी भी हैं। बगलामुखी की साधना बिना गुरु के भूल कर भी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा थोड़ी सी भी चूक से साधक के समक्ष गंभीर संकट उपस्थित हो जाता है। मणिद्वीप वासिनी काली भुवनेश्वरी माता ही बगलामुखी हैं। इनकी अंग पूजा में शिव, मृत्युंजय, श्री गणेश, बटुक भैरव और विडालिका यक्षिणी का पूजन किया जाता है। कई जन्मों के पुण्य प्रताप से ही इनकी उपासना सिद्ध होती है। विद्वानों का मत है कि विश्व की अन्य सारी शक्तियां संयुक्त होकर भी माता बगला की बराबरी नहीं कर सकती हैं। इनके मंत्र का जप सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। इनके मंत्र के जप से अनेक प्रकार की चमत्कारिक अनुभूतियां होने लगती हैं। अलग-अलग कामनाओं की सिद्धि हेतु जप के लिए हरिद्रा, पीले हकीक या कमलगट्टे की माला का प्रयोग करना चाहिए। देवी को चंपा, गुलाब, कनेल और कमल के फूल विशेष प्रिय हैं। इनकी साधना किसी शिव मंदिर या माता मंदिर में अथवा किसी पर्वत पर या पवित्र जलाशय के पास गुरु के सान्निध्य में विशेष सिद्धिप्रद होता है। वैसे घर में भी किसी एकांत स्थान पर दैनिक उपासना की जा सकती है। श्री बगला के एकाक्षरी, त्रयाक्षरी, चतुराक्षरी, पंचाक्षरी, अष्टाक्षरी, नवाक्षरी, एकादशाक्षरी और षट्त्रिंशदाक्षरी मंत्र विशेष सिद्धिदायक हैं। सभी मंत्रों का विनियोग, न्यास और ध्यान अलग-अलग हैं। इनके अतिरिक्त 80, 100, 126 अक्षरों मंत्रों के साथा 514 अक्षरों के बगला माला मंत्र की भी विशेष महिमा है। 666 अक्षर का ब्रह्मास्त्र माला मंत्र भी है। इसके अलावा और भी अनेकानेक मंत्र हैं, जिनका उल्लेख सांखयायन तंत्र में मिलता है। मनोकामना की सिद्धि के लिए बगला स्तोत्र, कवच और बगलास्त्र का गोपनीय पाठ भी किया जाता है। साथ ही बगला गायत्री और कीलक भी है। घृत, शक्कर, मधु और नमक से हवन करने पर आकर्षण होता है। शहद, शक्कर मिश्रित दूर्वा, गुरुच और धान के लावा से हवन करने पर रोगों से मुक्ति मिलती है। कार्य विशेष के लिए विशेष माला, विशेष मंत्र और विशेष हवन का विशेष प्रयोग होता है।'
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वनेश्वरी संहिता

वनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम गं्रथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ ह।ै 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। 'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है। प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु। उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगााणां शतद्वयम्॥ मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के। विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥ एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥ तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥ अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं। दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें- सामान्य विधि : नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं। वाकार विधि : यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है। संपुट पाठ विधि : किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। सार्ध नवचण्डी विधि : इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है। शतचण्डी विधि : मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है। इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
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Saturday 2 April 2022

भगवती श्री काली

भगवती श्री काली
परमात्मा की पराशक्ति भगवती निराकार होकर भी देवताओं का दु:ख दूर करने के लिये युग-युग में साकार रूप धारण करके अवतार लेती हैं। उनका शरीर ग्रहण उनकी इच्छा का वैभव कहा गया है। सनातन शक्ति जगदम्बा ही महामाया कही गयी हैं। वे ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं। उनकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मादि समस्त देवता भी परम तत्त्व को नहीं जान पाते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? वे परमेश्वरी ही सत्त्व, रज और तस- इन तीनों गुणों का आश्रय लेकर समयानुसार सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन औ संहार किया करती हैं। शिव पुराण के अनुसार उनके काली रूप में अवतार की कथा इस प्रकार है- प्रलयकाल में सम्पूर्ण जगत के जलमग्न होने पर भगवान विष्णु योगनिद्रा में शेषशय्या पर शयन कर रहे थे। उन्हीं दिनों भगवान विष्णु के कानों के मल से दो असुर प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे। उनके जबड़े बहुत बड़े थे। उनके मुख दाढ़ों के कारण ऐसे विकराल दिखायी देते थे, मानो वे सम्पूर्ण विश्व को खा डालने के लिये उद्यम हों। उन दोनों ने भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुए कमल के ऊपर विराजमान ब्रह्मा जी को मारने के लिये तैयार हो गये। 
ब्रह्माजी ने देखा कि ये दोनों मेरे ऊपर आक्रमण करना चाहते हैं और भगवान विष्णु समुद्र के जल में शेषशय्या पर सो रहे हैं, तब उन्होंने अपनी रक्षा के लिये महामाया परमेश्वरी की स्तुति की और उनसे प्रार्थना किया- 'अम्बिके! तुम इन दोनों असुरों को मोहित करके मेरी रक्षा करो और अजन्मा भगवान नारायण को जगा दो।'
मधु और कैटभ के नाश के लिये ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिदेवी जगज्जननी महाविद्या काली फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को त्रैलोक्य-मोहिनी शक्ति के रूप में पहले आकाश में प्रकट हुईं। तदनन्तर आकाशवाणी हुई 'कमलासन ब्रह्मा डरो मत। युद्ध में मधु-कैटभ का विनाश करके मैं तुम्हारे संकट दूर करूँगी।' फिर वे महामाया भगवान श्रीहरि के नेत्र, मुख, नासिका और बाहु आदि से निकल कर ब्रह्मा जी के सामने आ खड़ी हुईं। उसी समय भगवान विष्णु भी योगनिद्रा से जग गये। फिर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने अपने सामने मधु और कैटभ दोनों दैत्यों को देखा। उन दोनों महादैत्यों के साथ अतुल तेजस्वी भगवान विष्णु का पाँच हज़ार वर्षों तक घोर युद्ध हुआ। अन्त में महामाया के प्रभाव से मोहित होकर उन असुरों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'हम तुम्हारे युद्ध से अत्यन्त प्रभावित हुए। तुम हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।'
भगवान विष्णु ने कहा- 'यदि तुम लोग मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे यह वर दो कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों से हो।' उन असुरों ने देखा कि सारी पृथ्वी एकार्णव जल में डूबी है। यदि हम सूखी धरती पर अपने मृत्यु का वरदान इन्हें देते हैं, तब यह चाह कर भी हम को नहीं मार पायेंगे और हमें वरदान देने का श्रेय भी प्राप्त हो जायगा। अत: उन दोनों ने भगवान विष्णु से कहा कि 'तुम हमको ऐसी जगह मार सकते हो, जहाँ जल से भीगी हुई धरती न हो।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् विष्णु ने अपना परम तेजस्वी चक्र उठाया और अपनी जाँघ पर उनके मस्तकों को रखकर काट डाला। इस प्रकार भगवती महाकाली की कृपा से उन दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो जाने से उनका अन्त हुआ।
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ॐ दुं दुर्गायै नमःगुप्त-सप्तशती।

ॐ दुं दुर्गायै नमः
गुप्त-सप्तशती।
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्‌॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्‌।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्‌॥ 4॥
अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ । 
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
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मां काली तंत्र

मां काली तंत्र
*दस महाविद्याओं में काली प्रथम हैं। कालिका पुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने हिमालय पर जाकर महामाया का स्तवन किया। पुराणकार के अनुसार यह स्थान मतंगमुनि का आश्रम था। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने मतंग-वनिता बनकर देवताओं को दर्शन दिया और पुछा कि 'तुमलोग किस की स्तुति कर रहे हो।' तत्काल उनके श्रीविग्रह से काले पहाड के समान वर्ण वाली दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ। उस महा तेजस्विनी ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि 'ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे गाढ काजल के समान कृष्णा थी, इसलिए उनका नाम 'काली' पडा। महाकाली प्रलय काल से सम्बद्ध होने से अतएव कृष्णवर्णा है। वे शव पर आरुढ इसीलिए हैं कि शक्तिविहीन विश्व मृत ही हैं। शत्रुसंहारक शक्ति भयावह होती हैं, इसीलिए काली की मूर्ति भयावह हैं। शत्रु-संहार के बाद विजयी योद्धा का अट्टहास भीषणता के लिए होता हैं, इसलिए महाकाली हँसती रहती हैं।*
*माता काली शत्रु-संहारक है, वह कभी भक्तो को निराश नही करती।*
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मां नील तारा

मां नील तारा
*वास्तव में काली को ही नीलरुपा होने से 'तारा' भी कहाँ गया हैं। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी हैं कि वह सर्वदा मोक्ष देनेवाली-तारनेवाली है, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों में रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या उग्रतारा हैं।तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रुप की चर्चा हैं। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शवरुप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरुढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नीलकमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग है। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला हैं। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ हैं। इस कारण वह महाकरुणामयी है। तारा तन्त्र में कहाँ गया हैं-*
*समुद्र मथने देवि कालकूट समुपस्थितम्।।*
*समुद्रमंथन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीनेवाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं। शिव-शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट हैं। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करनेवाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करनेवाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिंगल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भूत हैं। यह फैली हुई उग्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरुपा हैं। यही एकजटा हैं। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिंगल जटा धारिणी उग्रतारा एकजटा के रुप में पूजित हुई। वही उग्रतारा शव के ह्रदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई।*
*मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्प्रदे।*
*प्रत्यालीढपदस्थिते शिवह्रदि स्मेराननाम्भोरुहे।।*
*शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रुपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति स्वरुप है।*
*नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती।*
*तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी।।*
*उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता।*
*पिंगोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरुपिणी।।*
*सर्व प्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठाराधिता तारा' भी कहा जाता हैं। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधना की, जो सफल ना हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया हैं, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली।*
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श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र

श्री कमलात्मिका (लक्ष्मी) तंत्र
(१), एकाक्षर मन्त्र-श्रीं
विनियोग-: अस्य श्री कमला मंत्रस्य भृगुऋषिः।। निवृच्छंद।। श्रीलक्ष्मीर्देवता।। मम् धनाप्तये जपे विनियोगः।।
ऋष्यादि न्यास
भृगुऋषये नमः शिरसि।।१।।
निवृच्छंदसे नमो मुखे।।२।।
श्री लक्ष्मी देवतायै नमो हृदि।।३।।
विनियोग नमः सर्वांगे।।४।।
करन्यास-
ॐ श्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।।१।।
ॐ श्रीं तर्जनीभ्यां नमः।।२।।
ॐ श्रूं मध्यमाभ्यां नमः।।३।।
ॐ श्रैं अनामिकाभ्यां नमः।।४।।
ॐ श्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।।५।।
ॐ कलतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।।६।।
ह्रदयादि षडंग न्यास
ॐ श्रां ह्रदयाय नमः।।१।।
ॐ श्रीं शिरसे स्वाहा।।२।।
ॐ श्रूं शिखायै वषट्।।३।।
ॐ श्रैं कवचाय हुं।।४।।
ॐ श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।।५।।
ॐ श्रः अस्त्राय फट् ।।६।।
ध्यान मन्त्र-
(श्री महालक्ष्मी का कोई भी ध्यान मंत्र कर सकते हैं।)
कान्तया कांचन सान्निभां हिमगिरि प्रख्यैश्चतुर्भिर्गजे हस्तोत्क्षिप्त हिरण्मया मृत घटै रासिच्यमानां श्रियम्। बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोजज्वलां।
क्षौमाबद्ध नितंब बिंब लसिता वंदेऽरविन्द स्थिताम्।।
इस तरह ध्यान कर पीठ स्थापन पूजन करें। यंत्र-स्थापन पूजन और यंत्राधिष्ठित देवताओं का आवरण पूजन करें। धूप-दिप-निराजन-नैवेद्य अर्पण करके, देवी का शुद्ध चित्त से ध्यान करते हुए मन्त्र जप आरंभ करें। यह एकाक्षर 'श्रीं' मन्त्र का पुरश्चरण बारह लाख (१२) मन्त्र का हैं।
चतुर्क्षर लक्ष्मीबीज मन्त्र ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं।।
बारह लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
दशाक्षर कमला मन्त्र
ॐ नमः कमलवासिन्यौ स्वाहा।।
इस मन्त्र का दस लाख जप करें।
श्री महालक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्ये स्वाहा।।
इस मन्त्र का एक लाख जप करें।
द्वादशाक्षर महालक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः जगत्यप्रसूत्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण १२ लाख मन्त्र का हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं लक्ष्मीरागच्छागच्छ मम मंदिरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।।
इस मन्त्र का नित्य १०८ जप करें। १०८ दिन तक अविरत जप करने से धन-वैभव की प्राप्ति होती हैं।
श्री सिद्धलक्ष्मी मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः।।
इस मन्त्र का पुरश्चरण एक लाख मन्त्र हैं।
श्री ज्येष्ठा लक्ष्मी मन्त्र
ऐं ह्रीं श्रीं ज्येष्ठालक्ष्मि स्वयंभुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः।।
इस मन्त्र का १ लाख जप करें।
वसुधा लक्ष्मी मन्त्र
ॐ ग्लौं श्रीं अन्नं मह्यन्नंमे देह्यन्नाधि पतये ममान्नं प्रदापय स्वाहा श्रीं ग्लौं ॐ।।
एक लाख मन्त्र का पुरश्चरण हैं।
श्री लक्ष्मी मन्त्र (अन्य)
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंह वाहिन्यै स्वाहा।।
पुरश्चरण एक लाख मन्त्र।
नित्य जप श्री लक्ष्मी मन्त्र 
ॐ श्रीं नमः।।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः।।
नित्य श्रीसुक्त पाठ भी माता महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए अमोघ हैं।
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नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।

नवरात्रि में प्रतिदिन दुर्गा के सिद्ध बीज मंत्रों का जप करने का विधान ।
ब्राह्म मुहूर्त में 4 बजे से लेकर प्रातः 7 बजे तक इन मंत्रों की जप साधना करने पर ये मंत्र पूर्ण सिद्ध हो जाते हैं। इन मंत्रों को प्रतिदिन 1100 बार रुद्राक्ष या लाल चंदन की माला से ही जप करना चाहिए । नौ दिनों कुल 9 हजार मंत्रों के जप का विधान है।
प्रतिदिन दसवां अंश या जो भी संभव हो,मंत्रों की आहुति का यज्ञ करने चाहिए । यज्ञ करने से जप का फल शीघ्र मिलने लगता हैं। और कुछ ही समय में माता रानी भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी भी कर देती हैं ।

1. शैलपुत्री : ह्रीं शिवायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
ध्यान-मूलाधार चक्र। 
    शैलपुत्री देवी पार्वती का ही स्वरूप हैं। जो सहज भाव से पूजन करने से शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। कलश स्थापना के समय पीले वस्त्र पहनें और माँ को (आरोग्यता हेतु गाय के शुद्ध घी का भोग), सफ़ेद मिष्ठान व सफ़ेद पुष्प चढ़ाकर माँ की आरती करें।

2. ब्रह्मचारिणी :  ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:। 
 स्तवन मंत्र-
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ध्यान चक्र-स्वाधिष्ठान।
    देवी को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें। सफेद और सुगंधित फूल, इसके अलावा कमल या गुड़हल का फूल भी देवी मां को चढ़ाएं। (पूर्ण आयु प्राप्ति हेतु मिश्री), सफ़ेद मिठाई से मां का भोग लगाएं आरती करें एवं हाथों में एक फूल लेकर उनका ध्यान करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र बोलें।

3. चन्द्रघण्टा :  ऐं श्रीं शक्तयै नम:। 
स्तवन मंत्र-
पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।
ध्यान चक्र-मणिपुर।
   शुद्ध जल और पंचामृत से स्नान करायें। अलग-अलग तरह के फूल,अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर,अर्पित करें।(धन वैभव आनंद दुखनाश हेतु केसर-दूध से बनी मिठाइयों या खीर का भोग) लगाएं। मां को सफेद कमल,लाल गुडहल और गुलाब की माला अर्पण करें और प्रार्थना करते हुए मंत्र जप करें।

4. कूष्मांडा : ऐं ह्री देव्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
ध्यान चक्र-अनाहत।
    नवरात्र में चौथे दिन कलश की पूजा कर माता कूष्मांडा को प्रणाम करें। देवी को पूरी श्रद्धा से फल,फूल, धूप, गंध, भोग चढ़ाएं। पूजन के पश्चात (मनोबल व सद्बुद्धि,उचित निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करने हेतु मां कुष्मांडा के दिव्य रूप को मालपुए का भोग) लगाकर किसी भी दुर्गा मंदिर में ब्राह्मणों को इसका प्रसाद देना चाहिए। पूजा के बाद अपने से बड़ों को प्रणाम कर प्रसाद वितरित करें और खुद भी प्रसाद ग्रहण करें।

5. स्कंदमाता : ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
ध्यान चक्र-विशुद्ध
     श्रृंगार केस्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि|| लिए खूबसूरत रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। स्कंदमाता और भगवान कार्तिकेय की पूजा विनम्रता के साथ करनी चाहिए। पूजा में कुमकुम,अक्षत,पुष्प,फल आदि से पूजा करें। चंदन लगाएं ,माता के सामने घी का दीपक जलाएं।आज के दिन (आरोग्यता एवं सद्बुद्धि हेतु भगवती दुर्गा को केले का भोग) लगाना चाहिए और यह प्रसाद ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

6. कात्यायनी : क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:।
स्तवन मंत्र-
चंद्र हासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना|
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानवघातिनि||
ध्यान चक्र-आज्ञा।
पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में सुगन्धित पुष्प लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।माँ को श्रृंगार की सभी वस्तुएं अर्पित करें। (आकर्षण एवं सौंदर्य हेतु मां कात्यायनी को शहद  बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन मां को भोग में शहद अर्पित करें।)देवी की पूजा के साथ भगवान शिव की भी पूजा करनी चाहिए ।

7. कालरात्रि : क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।
वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
ध्यान चक्र-ललाट।
   कलश पूजन करने के उपरांत माता के समक्ष  दीपक जलाकर रोली, अक्षत,फल,पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए। देवी को लाल पुष्प बहुत प्रिय है। इसलिए पूजन में गुड़हल अथवा गुलाब का पुष्प अर्पित करने से माता अति प्रसन्न होती हैं। मां काली के ध्यान  मंत्र का उच्चारण करें,(संकट से रक्षा हेतु माता को  गुड़ का भोग) लगाएं तथा ब्राह्मण को गुड़ दान करना चाहिए।

8. महागौरी : श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:। 
स्तवन मंत्र-
श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
ध्यान चक्र- सिर में चोटी के स्थान  पर है, 
     अष्टमी तिथि के दिन प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् कलश पूजन के पश्चात् मां की विधि-विधान से पूजा करें। इस दिन मां को सफेद पुष्प अर्पित करें, मां की वंदना मंत्र का उच्चारण करें। आज के दिन (संतान के बाधा निवारण तता उनके सुख हेतु माँ को नारियल का भोग), हलुआ,पूरी,सब्जी,काले चने एवं नारियल का भोग लगाएं। माता रानी को चुनरी अर्पित करें।अगर आपके घर अष्टमी पूजी जाती है। तो आप पूजा के बाद कन्याओं को भोजन भी करा सकते हैं ये शुभ फल देने वाला माना गया है।

9. सिद्धिदात्री :  ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:। 
स्तवन मंत्र-
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि,
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।
ध्यान चक्र-पिण्ड (शरीर) से बाहर सूक्ष्म शरीर में ।

     सर्वप्रथम कलश की पूजा करके व उसमें स्थापित सभी देवी-देवताओं का ध्यान करना चाहिए। रोली,मोली,कुमकुम,पुष्प चुनरी आदि से माँ की भक्ति भाव से पूजा करें। (मृत्युभय एवं दुर्घटना से रक्षा हेतु तिल से बनी मिठाई का भोग), हलुआ,पूरी, खीर, चने, नारियल से माता को भोग लगाएं। इसके पश्चात माता के मंत्रो का जाप करना चाहिए। इस दिन नौ कन्याओं को घर में भोजन करना चाहिए। कन्याओं की आयु दो वर्ष से ऊपर और 10 वर्ष तक होनी चाहिए और इनकी संख्या कम से कम 9 तो होनी ही चाहिए। नव-दुर्गाओं में सिद्धिदात्री अंतिम है। तथा इनकी पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इस तरह से की गई पूजा से माता अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न होती है। भक्तों को संसार में धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
विशेष नोट- मां के भोग हेतु जो भी भाग निकाला गया हो वह भाग दक्षिणा सहित मंदिर के पुजारी या किसी ब्राह्मण को अवश्य दीजिए।

 शरीर में कुल कितने कमल हैं और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
      शरीर में कुल कितने कमल हैं। और पूर्ण परमात्मा शरीर में कहाँ निवास करता है।
शरीर में 108 कमलदल याने कि चक्र माने गए है।

उनमें से 7 प्रमुख है। ऐसे तो 112 चक्र है परन्तु बाकी 4 शरीर के बहार है।

और पूर्ण परमात्मा ऐसे तो पूरे शरीर में है क्युकी वो हर कण में है। तो शरीर के भी हर कण में होंगे। बाकी शास्त्रों की माने तो अज्ञा चक्र से उसके अनुभूति शुरु होती है। और आप सहत्र दल चक्र पर उन्हें पूर्ण रूप से समझने लगते है। तो आप कह सकते है। कि पूर्ण परमात्मा का ज्ञान सहस्त्र दल से होता है। तो वहीं उनका निवास होना चाइए।

और यदि आप शरीर के बहार कहीं पूर्ण परमात्मा को ढूंढ़ रहे है। तो आपको साकार ब्रह्म की अवधारणा को देखना होगा, तो उसके हिसाब से हर त्रिदेव का अपना अपना लोक है। और वह तीनों परमात्मा कहे जा सकते है। वैसे ज्यादातर मनुष्य सदा शिव को परमात्मा मानते है तो वो शिवलोक में रहते है।

 पहले दिन पहनें पीले रंग के वस्त्र
नवरात्रि के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है. माना जाता है। कि माता शैलपुत्री को पीला रंग बहुत प्रिय है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करने से मां शैलपुत्री प्रसन्न होती हैं।
हरे रंग के वस्त्र धारण करें । दूसरे दिन
नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना होती है। धार्मिक मान्यता है। कि माता ब्रह्मचारिणी को हरा रंग बेहद पसंद है। इसलिए उनकी चुनरी और श्रंगार भी हरे रंग से किया जाता है। भक्तों को उनकी पूजा हरे रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए।
मां चंद्रघंटा को प्रिय है। भूरा रंग
नवरात्र के तीसरे दिन मां दुर्गा के चंद्रघंटा स्वरूप की पूजा की जाती है। उन्हें भूरा रंग बहुत भाता है। इसलिए उनका वस्त्र विन्यास भी भूरे रंग के कपड़ों से किया जाता है। भक्तों को नवरात्र के तीसरे दिन भूरे रंग के कपड़े  पहनकर मां की पूजा करनी चाहिए।
चौथे दिन पहनें नारंगी रंग के वस्त्र
चौथे दिन मां कुष्मांडा की आराधना की जाती है। मान्यता है। कि उन्हें नारंगी रंग बहुत प्रिय है। उनकी पूजा के दौरान सारा श्रंगार भी नारंगी रंग के कपड़ों से किया जाता है। इसलिए भक्तों को उनकी पूजा नारंगी रंग के कपड़े पहनकर करनी चाहिए इससे माता प्रसन्न होती हैं।

मां स्कंदमाता को सफेद रंग प्रिय
नवरात्रि के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की आराधना की जाती है। माना जाता है। कि मां स्कंदमाता को सफेद रंग से बेहद लगाव है। इसलिए उनकी पूजा करते हुए भक्तों को सफेद रंग के कपड़े जरूर पहनने चाहिएं. भक्तों को इस श्रद्धा का फल जरूर मिलता है।
छठे दिन धारण करें लाल रंग के कपड़े
नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का माना जाता है। मान्यता है कि मां कात्यायनी को लाल रंग काफी प्रिय है। इसे देखते हुए उनका श्रंगार भी लाल रंग के कपडों से किया जाता है। भक्तों को भी मां को प्रसन्न करने के लिए छठे दिन लाल रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
मां कालरात्रि को पसंद हैं। नीला रंग
सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा की जाती है। उन्हें नीला रंग बहुत प्रिय है। उनकी प्रतिमा के वस्त्रों और पूजा के दूसरे सामानों का रंग भी नीला ही रखा जाता है। भक्तों को उनकी आराधना करते हुए नीले रंग के कपड़े  धारण करने चाहिए।
आठवें दिन पहनें गुलाबी रंग के वस्त्र
नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। उन्हें गुलाबी रंग से बेहद लगाव माना जाता है। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए नवरात्र के आठवें दिन गुलाबी रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
आखिरी दिन पहनें जामुनी रंग के कपड़े  
नवरात्रि के नौवें और आखिरी दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाती है। माना जाता है। कि जामुनी रंग मां सिद्धिदात्री को बहुत भाता है। इसलिए उनकी पूजा करते समय जामुनी रंग के कपड़े  पहनने चाहिए।
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https://youtu.be/XfpY7YI9CHc

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